शहर में रहकर
लिखी जाती रहीं
गाँव पर कविताएँ,
चमड़ी का साहित्य
कभी नहीं सहेज पाया
विभेद के उलाहने
भूख और नींद
कलह मचाते रहे
भीड़ भरी बस्तियों में,
मेड़ पर खड़ा किसान
घूरता रहा
परती ज़मीन को
कारख़ानों में
कोयले की उष्मा ने
राख कर दीं हड्डियाँ
रीढ़ की,
तयशुदा जगह पर
कभी पहुँच नहीं पाए
पिता के पत्र
अनब्याही लड़कियों को
दुत्कारा जाता रहा
चौराहों के आसपास,
ब्याही लड़कियाँ
अपने सपनों पर
जमी गर्द
आजीवन साफ़ करती रहीं
आडम्बरों ने गिरा दिए
घोंसले और
भव्यता को घर का नाम दिया,
खण्डहरों में पाए गए
शिलालेख सिर्फ़
पाण्डुलिपियों के अनुवाद तक
सीमित रहे
प्रगति ने उत्कटता से किया
मानवीय सम्वेदनाओं का वध
मनुष्य प्रश्नों में
तलाशता रहा अपना अस्तित्व,
यथार्थ अपने पटाक्षेप से
कोसता रहता है
मनुष्य को निरन्तर।