दो क्षण चुप-चुप
लिए हाथ में हाथ
निहारे वन, उपवन, तृण,
दृष्टि बचावें
गरम धूप में
नरम दूब पर
बैठे रहें निकट हम
किसी ध्यान में
बहुत पास
फिर भी उदास
डूबे-डूबे-से

फिर सहसा कस जाएँ हाथ कुछ और
डूब से उभर साथ कुछ और पाएँ
हम-तुम अपने को
नरम दूब पर
स्वच्छ धूप में दो क्षण और नहाएँ
बाँहें किसी भरम से पुलकें
ओठ गरम हो जाएँ

गहरे हरे नीर-से, क्षण चंचल हो थिरें,
सहज हम फिरें
धूप की धारा में धुल जाएँ

दो क्षण बैठें—अंतिम दो क्षण—
चिर-कृतज्ञ क्षण के प्रति
अपने प्रति

दूर-क्षितिज की ओर—
दृष्टियाँ चार
देखती रहें
देखती रहें
समर्पित!

अज्ञेय की कविता 'हरी घास पर क्षण भर'

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