भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी आधुनिक काल के प्रथम प्रमुख कवि माने जाते हैं। भारतेन्दु का कार्यकाल लगभग उसी समय का रहा जब 1857 की क्रांति के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज ख़त्म हुआ और ब्रिटिश शासन ने प्रत्यक्ष रूप से अपने पैर जमाए।
1857 की क्रांति के पहले और बाद में अंग्रेज़ों के काम करने के तरीके में कुछ अंतर देखे जा सकते थे। उदाहरणतः ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में केवल लूट-खसोट में लगी थी जबकि ब्रिटिश सरकार ने अपने शासन के आरम्भ में जनता से जनता के हितों को लेकर कई वादे किए, जिसमें से एक सभी धर्मों का बिना किसी तनाव के एक साथ रहने के लिए सहयोग करना भी था। ये सभी वादे कितने सच साबित हुए यह बाद की बात थी लेकिन उस समय भारत की जनता का एक वर्ग ब्रिटिश सरकार को एक सकारात्मक दृष्टि से ज़रूर देख रहा था।
भारत का यह वर्ग समाज की पुरानी रूढ़ियों, अशिक्षा, धर्म और जाति-भेदों से ऊपर उठने की कोशिश में लगा था जिसमें अंग्रेज़ों द्वारा भारत में लायी गयी अंग्रेज़ी शिक्षा, विज्ञान और तर्क उसकी मदद कर रहे थे। ऐसे में यह वर्ग ईस्ट इंडिया कम्पनी के अत्याचार के बाद ब्रिटिश सरकार की मीठी बातों में अपने उज्जवल भविष्य की आशा करने लगा। उसी वर्ग से भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी सम्बन्ध रखते थे और उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लेकर अपनी आशापूर्ण सोच को ‘श्री राजकुमार सुस्वागत पत्र‘ लिखकर प्रकट किया जब महारानी विक्टोरिया के पुत्र 1869 में भारत आए:
जाके दरस-हित सदा नैना मरत पियास।
सो मुख-चंद बिलोकिहैं पूरी सब मन आस।
नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय।
कमल-पाँवड़े ये किए अति कोमल पद जोए।
स्वागत की ऐसी ही कुछ और पंक्तियाँ हैं:
स्वागत स्वागत धन्य तुम भावी राजधिराज।
भई सनाथा भूमि यह परसि चरन तुम आज।
राजकुंअर आओ इते दरसाओ मुख चंद।
बरसाओ हम पर सुधा बाढ़यौ परम आनंद।
भारतेन्दु को लगा कि शायद अब भारत की जनता के दुःखों का निदान हो सकता है और प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर उन्होंने उनसे कुछ इस तरह आग्रह किया:
भरे नेत्र अंसुअन जल-धारा।
लै उसास यह बचन उचारा।
क्यों आवत इत नृपति-कुमारा।
भारत में छायो अंधियारा।
तिनको सब दुःख कुंअर छुड़ावो।
दासी की सब आस पुरावो।
बृटिश-सिंह के बदन कराला।
लखि न सकत भयभीत भुआला।
भारतेन्दु की ये कविताएँ केवल उनकी राजभक्ति नहीं दिखाती। लार्ड लारेंस, लार्ड मेयो और लार्ड रिपन की प्रशंसा करते हुए उन्होंने जो कविताएँ लिखीं, उनकी प्रेरणा कहीं न कहीं इन लोगों द्वारा किए गए समाज सुधार के कार्य भी थे। जहाँ लार्ड लारेंस ने आर्थिक उन्नति और किसानों के लिए अनेक कार्य किए, वहीं मेयो ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाए। सम्भवतः इसी कारण भारतेन्दु ने ऐसी कविताएँ लिखीं। लार्ड रिपन के लिए उन्होंने ‘रिपनाष्टक’ लिखा:
जय-जय रिपन उदार जयति भारत-हितकारी
जयति सत्य-पथ-पथिक जयति जन-शोक-बिदारी
जय मुद्रा-स्वाधीन-करन सालम दुख-नाशन
भृत्य-वृत्ति-प्रद जय पीड़ित-जन दया-प्रकाशन
नीचे दी गयी पंक्तियों में भारतेन्दु बताते हैं कि लार्ड रिपन उनसे पहले के सभी लॉर्डों से कैसे अधिक सम्मानीय हैं:
जदपि बाहुबल क्लाइव जीत्यौ सगरो भारत।
जदपि और लाटनहू को जन नाम उचारत।
जदपि हेसटिंग्स आदि साथ धन लै गए भारी।
जदपि लिटन दरबार कियो सजि बड़ी तयारी।
पै हम हिंदुन के हिय की भक्ति न काहू संग गई।
सो केवल तुम्हरे संग रिपन छाया सी साथिन भई।
लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र की राजभक्ति अंधी नहीं थी। ब्रिटिश राज्य का असली चेहरा सामने आने से पहले उससे इस तरह की उम्मीदें रखना किसी भी राजभक्त के लिए स्वाभाविक ही था। इसके अलावा, कुछ समय बाद जब ब्रिटिश शासन के भेद जनता के सामने खुलने लगे और लूट-खसोट की वही पुरानी प्रवृत्ति सामने आयी और जनता कभी भ्रष्टाचार और कभी अकाल के कारण भूखों मरने लगी तो भारतेन्दु ने उनकी आलोचना भी मुखर होकर की:
स्ट्रैची डिजरैली लिटन चितय नीति के जाल
फंसि भारत जरजर भयो काबुल युद्ध अकाल
सुजस मिलै अंगरेज कों होय रूस की रोक
बढ़ै ब्रिटिश वाणिज्य पै हम कों केवल सोक।
नवाबों, राजाओं, जमींदारों और सामंती शोषणकर्ताओं के शोषण से त्रस्त भारतीय समाज का, नयी-तकनीक और नए रोजगारों की अपेक्षा में ब्रिटिश सरकार को अपना शुभचिंतक समझ लेना उस समय की एक विडंबना ही थी जो भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रस्तुत कविताओं में झलकती है, और जिसका एक रूप में खंडन भी स्वयं भारतेन्दु अपनी आगे की कविताओं में करते हैं।