कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिए की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुंदर-सुंदर बुर्जियाँ अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चंद्रकांता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चंद्रकांता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़ कर चंद्रकांता के हाथ में दे रही है, मगर चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं। उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियाँ जबर्दस्ती बाग में खींच लाई हैं।

चंद्रकांता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चंद्रकांता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला – “न मालूम चम्पा किधर चली गई?”

चंद्रकांता – “कहीं इधर-उधर घूमती होगी।”

चपला – “दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।”

चंद्रकांता – “देखो वह आ रही है।”

चपला – “इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।”

इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चंद्रकांता के हाथ में दिया और कहा – “देखिए, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लाई हूँ। अगर इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।”

वीरेंद्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चंद्रकांता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊँची-ऊँची साँसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी – “न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन-से ऐसे पाप किए हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समाई है। कहते हैं कि चंद्रकांता को कुँआरी ही रखूँगा। हाय! वीरेंद्र के पिता ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें की, मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उनको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।”

एकाएक चपला ने चंद्रकांता का हाथ पकड़ कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।

चपला के इशारे को समझकर चंद्रकांता चुप हो गई और चपला का हाथ पकड़ कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रूमाल उसी जगह जान-बूझ कर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा – “सखी देख तो, फव्वारे के पास कहीं मेरा रूमाल गिर पड़ा है।”

चम्पा रूमाल लेने फव्वारे की तरफ चली गई तब चंद्रकांता ने चपला से पूछा – “सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?”

चपला ने कहा – “मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।”

इतने में चम्पा ने रूमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चम्पा से पूछा – “सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तूने किया?”

चम्पा बोली – “नहीं, मैं तो भूल गई।”

तब चपला ने कहा – “भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गई?”

चम्पा बोली, “बात तो याद है।”

तब फिर चपला ने कहा, “भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानूँ कि तुझे याद है।”

इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गई और कुछ मामूली बातें करके बोली – “देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।”

नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गई और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सूँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश हो कर गिर पड़ी।

चपला ने चंद्रकांता को पुकारकर कहा – “आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।”

चंद्रकांता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा – “सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े।”

“नहीं, ऐसा न होगा।” कहकर चपला चम्पा को पीठ पर लाद फव्वारे के पास ले गई और चंद्रकांता से बोली – “तुम फव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ।”

चंद्रकांता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़ कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गई और साफ नाजिम की सूरत निकल आई। देखते ही चंद्रकांता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली – “सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की।”

“देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।” कह कर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गई, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अंदर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गई और मारना शुरू किया।

“माफ करो, मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा।” इत्यादि कह कर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी?

वह कोड़ा जमाए ही गई और बोली – “सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी। तू यहाँ क्यों आया था? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी? क्या बाग की सैर को जी चाहा था? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ।” यह कह कर फिर मारना शुरू किया, और पूछा – “सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई?”

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला – “चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गई, तब मैंने उसे मालती लता के कुँज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो।”

चपला ने कहा – “ठहर, छोड़ती हूँ।” मगर फिर भी दस-पाँच कोड़े और जमा ही दिए, यहाँ तक कि नाजिम बिलबिला उठा। तब चपला ने चंद्रकांता से कहा – “सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो।”

चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढूँढने लगी। देखा कि सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघा कर होश में लाई और पूछा – “क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।”

चम्पा ने कहा – “मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूँघते ही मैं बेहोश हो गई, फिर न मालूम क्या हुआ। हाय, हाय। न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे।”

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढका और तब यह कहकर कि ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की…’ चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चंद्रकांता और नाजिम थे।

नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, “देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी।”

चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली – “बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगाकर अपना गुस्सा निकाल लूँ?”

चपला ने कहा – “हाँ-हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ।”

बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाए, यहाँ तक कि नाजिम घबरा उठा और जी में कहने लगा – “खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई।”

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैदकर तीनों महल की तरफ रवाना हुईं। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ, उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खासकर चंद्रकांता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

देवकी नन्दन खत्री
बाबू देवकीनन्दन खत्री (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की।