तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अँधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकांत में गए और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले – “यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रखा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तंबाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तंबाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे।”

“हाँ-हाँ, आइए, बैठिए, तंबाकू पीजिए।” कह कर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रखा।

तेजसिंह ने कहा – “मैं हिंदू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।” यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तंबाकू के नहीं पिए थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा – “मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तंबाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तंबाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गई है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तंबाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गई है कि सिवाय उस तंबाकू के और कोई तंबाकू अच्छा नहीं लगता।”

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तंबाकू निकाल कर दिया और कहा – “तुम लोग भी पी कर देख लो कि कैसा तंबाकू है।”

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तंबाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा – “लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तंबाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे।” यह कह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तंबाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए। तेजसिंह ने कहा – “तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।”

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गए।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अंदर घुस गए और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमंद डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरंत उसे बेहोशी की बुकनी सुंघाई और जब बेहोश हो गई तो उसे वहाँ से उठाकर किनारे ले गए। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चंद्रकांता, चपला और चम्पा दस-पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंडी की सूरत बनाए हुए तेजसिंह भी एक किनारे जाकर बैठ गए।

तेजसिंह को देख चपला बोली – “क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गई है?”

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंडी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी – “हाँ काम तो करने गई थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आई हूँ।”

चपला – “ऐसा। अच्छा तूने क्या देखा कह?”

नकली केतकी – “सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।”

सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चंद्रकांता, चपला और चम्पा रह गई। अब केतकी ने हँसकर कहा – “कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।”

चंद्रकांता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेंद्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेंद्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है? आखिर चंद्रकांता ने केतकी से कहा – “हाँ, हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?”

केतकी ने कहा – “पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।” यह कह उठकर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी – “क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ कर बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के।”

केतकी ने जवाब दिया – “क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी।”

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गुथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकी – (हँस कर) “क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो।”

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली – “ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ।”

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेंद्रसिंह की चिट्ठी निकालकर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेंद्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेंद्रसिंह कभी चिट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गरदन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चंद्रकांता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेंद्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी –

चंद्रकांता – “क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?”

तेजसिंह – “मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है। अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझा कर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बंदोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।”

चंद्रकांता – “अफसोस। तुम उनको अपने साथ न लाए, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रखा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रखा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा कर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गए हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अंदर जाने की इजाजात इसे किसने दी थी?”

यह कहकर चंद्रकांता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गए और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले – “चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।”

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम। मैंने क्या धोखा खाया। पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा – “जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?”

तेजसिंह ने कहा – “क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करती या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देती, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।”

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गए और बहुत शर्मिंदा होकर बोली – “सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने ख्याल न किया।”

तेजसिंह – “और कोई क्यों ख्याल करता। तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका ख्याल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को…? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?”

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अंदर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली – “क्या कहूँ, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।”

अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया – “बड़ी ऐयार बनती थी, कहती थी हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला।”

चपला झुँझला उठी और चिढ़कर बोली – “चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियाँ न लगाऊँ।”

तेजसिंह ने कहा – “बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई, अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।”

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चंद्रकांता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जाएगा।

चंद्रकांता ने तेजसिंह से ताकीद की – “दूसरे-तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।”

“बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।” कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए।

चंद्रकांता उन्हें जाते देख रोकर बोली – “क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?” इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी।

तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबरा जाओगी तो कैसे काम चलेगा?

बहुत अच्छी तरह समझा-बुझा कर चंद्रकांता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आए। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आए हैं, बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपटकर दरबानों से कहा – “तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो? इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगाकर। देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ।”

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गए और लगे खुशामद करने – “देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे कर ऐसा जहरीला तंबाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी। देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गए। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।”

नकली केतकी ने कहा – “अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार। जो फिर कभी ऐसा हुआ।” यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गए।

डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही है?

देवकी नन्दन खत्री
बाबू देवकीनन्दन खत्री (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की।