‘Dard Baantne Se Kam Hota Hai’, a poem by Pallavi Vinod
दुकान पर दर्द बाँट रहा था ईश्वर
छिड़क दिया दुनिया के हर कोने में
मुठ्ठी भर-भरकर बाँट दिया बुज़ुर्गों को
किलो के हिसाब से तौला बिन माँ के बच्चों को
फिर रोज़ की रोटी का जुगाड़ करते अपाहिज को
दर्द इतना था कि ख़त्म होने के नाम ही नहीं ले रहा था
जो पंक्ति में जैसे आता गया, उतना ज़्यादा पाता गया
आख़िर में सिर्फ़ स्त्रियाँ बची थीं
उनसे पहले वो पुरुष, जो स्त्रीवादी थे
कुछ इश्क़ में थीं
कुछ ठुकरायी गयी थीं
कुछ सड़े-गले रिश्तों का बोझ ढो रही थीं
सबसे आख़िर में वो खड़ी थीं जो प्रेम में थीं
लेकिन प्रेम उनकी क़िस्मत में नहीं था।
पता नहीं किसने कहा था, दर्द बाँटने से कम होता है।
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