A ghazal by Shivom Misra
एक रिश्ते से आड़ कर बैठा
दर्द अपना पहाड़ कर बैठा
अब भला कौन खटखटाएगा
बंद दिल के किवाड़ कर बैठा
मेरी मिट्टी ने तब शिकायत की
जब ज़मीनों को झाड़ कर बैठा
फूल थे सिर्फ़ देखने के लिए
आदमी छेड़-छाड़ कर बैठा
किसी ज़ालिम की सल्तनत के क़रीब
वक़्त दाँतो को गाड़ कर बैठा
दिल से मेरे, दिमाग़ भी ‘अनवर’
रब्त कर के बिगाड़ कर बैठा
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