सुंदरवन, भारत के मध्य-क्षेत्र या कहें कि मरकज़ में मौजूद एक ऐसा जंगल जो ना केवल अपने पेड़ों, जानवरों, पहाड़ों, नदीयों, झरनों आदि के लिए जाना जाता है बल्कि जाना, पहचाना और माना जाता है अपने किस्से-कहानियों और अफ़सानों के लिए।

सुंदरवन में उस ज़माने से बात इधर से उधर करने का काम जारी है जिस ज़माने में इंसानी-दुनिया में पोस्ट-मैन या संदेश-वाहक नामक आदमी की एंट्री भी नहीं हुई थी। यहाँ कुछ घटता नहीं था कि जंगल के कौए, गौरैया, उल्लू, मोर, तोते, अनादिल, पंछी, परिंदे घटना को यहाँ से वहाँ कर देते थे। ये ना होते तो पंचतंत्र की कहानियाँ अधूरी ही रह जातीं। इन्हीं की वजह से कई मशहूर और मक़बूल कहानियाँ अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों में छपीं जिन्हें इंसानों ने बड़े मज़े से पढ़ा और जानवरों से जीवन जीने की कला भी सीखी।

इन्हीं अफ़सानों में एक मशहूर-ए-ज़माना फसाना था गटरु खरगोश और टीटो कछुए का। ख़ुदा-कसम इस अफ़साने ने खरगोश-जात का जो मज़ाक बनाया है वो कयामत की रोज़ तक उन्हें याद रहेगा।

अगर आपकी याद्दाश्त कमज़ोर हो तो आपको वह कहानी फिर से सुनाए देता हूँ।

गटरु बड़ा ही तेज़, चुस्त-दुरुस्त लेकिन घमंडी खरगोश था। उसे अपनी रफ़्तार पर उतना भरोसा था जितना गठबंधन सरकार को अपने सहयोगियों पर होता है। एक दिन जंगल में दौड़ का एलान हुआ और इस दौड़ में गटरु के अलावा वन के सबसे ढीले, अपने में ही मसरूफ़ टीटो कछुए ने भी हिस्सा ले लिया।

टीटो इतना धीमा चलता था कि उसकी चाल की तुलना देश की जीडीपी में बढ़ोतरी और पेट्रोल के दाम में गिरावट की गति से की जा सकती है। एकदम स्लो, तीनों के तीनों।

रेस की रोज़ बात-बात में गटरु ने टीटो का मज़ाक बना दिया जिससे टीटो काफ़ी दुःखी हुआ और उसने मन ही मन गटरु को हराने का इरादा कर लिया।

रेस शुरू हुई और जैसा कि सबने सोचा था गटरु सबसे आगे निकल गया। रास्ते में कुछ देर सुस्ताने का विचार बनाकर गटरु सो गया जिसके फलस्वरूप टीटो ने रेस जीत ली। पूरे जंगल में गटरु का माखौल उड़ाया गया। वह पूरे वन के तंज-ओ-मिज़ाह का शिकार बन गया। टीटो ने वाह-वाही लूटी और जंगल में इज़्ज़त हासिल की।

लेकिन इसके बाद क्या हुआ?

इसके बाद हुआ जश्न, उत्सव, पार्टी जिसमें टीटो ने जंगल के तमाम जानवरों को बुलाया। गटरु को भी इसी पार्टी में बेइज़्ज़त करने के इरादे से बुलाया गया। टीटो और बाकी जानवरों का प्लान था कि पार्टी के बाद जब सारे जानवर स्पेशल-खरबूज खाने के लिए बैठें तो खरबूज खाने के बाद अपने-अपने छिलके गटरु के पास रख दें। ऐसा करके वे उसे भुक्कड़ कहकर उसका मज़ाक बना पाएंगे। सभी को प्लान पसन्द आया और गटरु को बुलाया गया।

पार्टी का दिन आया और उत्सव के बाद सभी जानवर खरबूज खाने बैठे। सबके बैठते ही सरताज-शेर (जिन्हें मास परोसा गया था) ने कहा-

“आज का जश्न टीटो और उसकी जीत के नाम है। बिस्मिल्लाह कीजिये।”

सभी ने खरबूज खाना शुरू किया और प्लान के मुताबिक़ छिलके गटरु के पास रखते गए। खाना खत्म होते ही सरताज शेर ने गटरु से कहा-

“भाई गटरु लगता है दौड़ के बाद पेट में काफी जगह बन गई हाँ, कितना खाओगे यार!” सरताज शेर हँस दिया और साथ ही हँस पड़े सारे जानवर। “भुक्कड़-गटरु”, “खउआ-गटरु” आदि नामों से उसे चिढ़ाया जाने लगा।

इसी बीच गटरु बोल पड़ा-

“महाराज! मैंने तो सिर्फ अपनी भूख के अनुसार खरबूज खाया, ये लोग तो इस क़दर भूखे थे कि खरबूज तो छोड़िए उसके छिलके भी खा गए।”

नशिस्त में हंसी की एक और लहर दौड़ गई लेकिन इस बार सिर्फ़ सरताज-शेर हँस रहा था बाकी सब चुप थे, एकदम चुप। सरताज ने हँसते-हँसते बस इतना कहा-

“मान गए गटरु!”

भले ही अपनी ला-परवाही से गटरु उस दिन हार गया हो लेकिन आज भी वह सुंदरवन के सबसे चालाक और चुस्त जानवरों में से एक है। आप मानें या ना मानें।