‘Hum Bharat Ke Log Aur Humara Samvidhan’, a poem by Harshita Panchariya
संविधान!
तुम उस गंगा माँ के समान हो
जिसकी पवित्रता की आड़ में
पुण्य की डुबकी लगाकर
उतना ही मैला किया गया
जितना दावा निर्मल करने का था।
तुम्हारे कोटि-कोटि भागीरथ
केसरिया और हरे के चक्कर में
उड़ा चुके है श्वेत कपोत
अंतहीन गगन में।
तुम्हारा ही आचमन कर तुझ में
डाला जा रहा बौद्धिक मैला
और तुम्हें संरक्षित करने का
दावा किया जाता रहा।
हे भागीरथों,
संविधान निर्मल और अविरल है
अगर कोई धारा जोड़नी या मोड़नी हो तो
वह अविरलता बढ़ाने के लिए हो
ना कि थामने के लिए।
संविधान के पगों को थामना
देश की नब्ज़ थामना है।
इसलिए अब भी उठो.. जागो..
सम्भालो… सम्भालो…
ख़ुद को
संविधान को
गणतंत्र को…
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