‘Humare Sath Mohabbat Ka Rabta Kaisa’, a nazm by Shahbaz Rizvi

हमारे साथ मुहब्बत का राब्ता कैसा
किसे तलाश समुन्दर में बहती लाशों की
कोई नहीं जो सदाओं पे चौंककर देखे
कोई नहीं जो उदासी का रास्ता रोके
किसे ख़बर कि मुसव्विर की चीख़ती आँखें
भला सकूत की तस्वीर खींच सकती हैं
सो अपने हिस्से की नादानियाँ समेटे हुए
तुम्हारे हुजरे की जानिब रवां दवां होंगे
कि हमको याद है वो उम्र जो गुज़ारी है
तुम्हारे साथ किसी अजनबी सफ़र पे रवां
तुम्हारा हाथ लिए अपने हाथ में गुमसुम

नदी किनारे गुज़ारा गया वो एक लम्हा
तमाम उम्र की आवारगी पे भारी है!

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