‘Ishqiya’, a poem by Mukesh Kumar Sinha
बारिश होने वाली हो और न हो
ऐसे ही थे तुम…!
बस भिगो देते थे, उम्मीद जताकर!
याद है, कैसे गच्चा देती थी
ज़बरदस्ती के बड़े-बड़े वादे करके
कल आऊँगी न, फलाने समय पर, फलाने टॉकीज़ के पास रहना
पर आने पर लेना टिकट!
बेशक हम इंतज़ार का दम भरते हुए देखते थे
टिकट खिड़की पर हाउस फुल का बोर्ड लग जाना!
मोबाइल का ‘म’ भी तो नहीं था जो
हर कुछ पल बाद पूछ बैठता कहाँ पहुँची हो?
एवें, बस मनोमन सोचता हुआ टॉकीज़ के साथ
पिछली सड़क पर, सिगरेट फूँकता, बिना फ़िल्टर वाली
शायद कैप्सटन या होती नम्बर टेन!
आख़िर तुम्हारे ना आने या देर से आने के कारण, होती तलब
पर, पैसे भी तो बचाने होते, टिकट के लिए!
नखरे भी तो कम नहीं थे
पता होता, बालकनी या डीसी से कम पर मानोगी नहीं
ऊपर से ज़बरदस्ती के कोहनी से मारती वो अलग
कह ही देती, साइड का सीट नहीं ले सकते थे क्या?
ख़ुद की ग़रीबी का जनाज़ा निकालने का जो
पाला हुआ था शौक़ मैंने!
छोटा शहर, इत्ते सारे पिकनिक स्पॉट
पर तुम्हें तो बस बैठना होता
किसी रेस्टोरेंट की कुर्सी पर, वो भी थम्स अप के बोतल के साथ
हर एक बार, थोड़ा-सा पीकर
करती आँखे लाल, और फिर गोल मुँह बनाकर
इसस, कितना धुंआ निकलता है!
हुंह, मुझे तो वही लास्ट का चौथाई मिलता
ग़रीबी का इश्क़, ऐसा ही होता है जनाब!
कॉलेज बंक, लोगों के देखने का डर
ऐसे भी छोटे शहर की गलियाँ होती ही ऐसी
जैसे हर गली हो सहोदर बहन!
किसी भी गली से निकलो, कोई भी कह देगी, कैसे हो भैया?
ऊपर से तुम, तुम्हारी उम्मीद और तुमसे प्यार!
सब नाटक!
मॉनसून में भी बहुतों बार
नहीं होती है बारिश, बस दिख जाते हैं मेघ…
तुम भी तो थी ऐसी!
कोई नहीं! अभी भी भीगने का अहसास… अच्छा लगता है
कल बिना बात की बदली थी बनियान
तुम्हारी स्मृतियों ने भिगोया था, समझे न!
मेघ की रिमझिम फुहारों-सी थी तुम
अल्हड़, मस्त, ख़ूबसूरत व चंचल!
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