जाने वो कौन था और किसको सदा देता था
उससे बिछड़ा है कोई, इतना पता देता था

कोई कुछ पूछे तो कहता कि हवा से बचना
ख़ुद भी डरता था बहुत, सबको डरा देता था

उसकी आवाज़ कि बे-दाग़-सा आईना थी
तल्ख़ जुमला भी वो कहता तो मज़ा देता था

दिन-भर एक-एक से वो लड़ता-झगड़ता भी बहुत
रात के पिछले-पहर सबको दुआ देता था

वो किसी का भी कोई नश्शा न बुझने देता
देख लेता कहीं इम्काँ तो हवा देता था

इक हुनर था कि जिसे पा के वो फिर खो न सका
एक-इक बात का एहसास नया देता था

जाने बस्ती का वो इक मोड़ था क्या उसके लिए
शाम ढलते ही वहाँ शमा जला देता था

एक भी शख़्स बहुत था कि ख़बर रखता था
एक तारा भी बहुत था कि सदा देता था

रुख़ हवा का कोई जब पूछता उससे ‘बानी’
मुट्ठी-भर ख़ाक ख़ला में वो उड़ा देता था!

दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं'

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