‘Jeetata Toh Prem Hi Hai’, a poem by Rahul Boyal
तुम्हें विस्मृत कर देने के मेरे सब प्रयास
और केवल स्वयं के ही रह जाने का हठ
अपनी आकांक्षाओं से जीत जाने का दम्भ
और केवल शरीर की पराजय का भ्रम
लिये बैठा है न मालूम क्या क्या वर्जनाएँ?
कि अब भी मचाये हुए है मन कई उत्पात।
कितनी तरह से बनायेगा भाले जिह्वा के?
कितनी बार आँखों से शमशीर बनायेगा?
कितनी मोड़ पायेगा राहों की गर्दनें?
कितनी आवाज़ों का घोंटेगा निर्वात में दम?
और भी जाने कौन से करेगा प्रहार?
हृदय अब भी बैठा है लिये शस्त्रास्त्र
जबकि जानता है अच्छे से
कि होना जाना कुछ भी नहीं।
कितना ही बड़ा योद्धा हो,
कब जीता है कोई, जो यह जीतेगा
पराजित होना ही मुकद्दर है प्रेम में
और कोई कैसे भी लड़े, जीतता तो प्रेम ही है।
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