केवल एक बात थी
कितनी आवृत्ति,
विविध रूप में कर के निकट तुम्हारे कही।
फिर भी हर क्षण,
कह लेने के बाद,
कहीं कुछ रह जाने की पीड़ा बहुत सही।
उमग-उमग भावों की,
सरिता यों अनचाहे,
शब्द-कूल से परे सदा ही बही।
सागर मेरे! फिर भी
इस की सीमा-परिणति
सदा तुम्हीं ने भुज भर गही-गही।