मृग तो नहीं था कहीं
बावले भरमते से इंगित पर चले गए।
तुम भी नहीं थे—
बस केवल यह रेखा थी
जिसमें बँधकर मैंने दुःसह प्रतीक्षा की—
सम्भव है आओ तुम
अपने संग अंजलि में भरने को
स्वर्ण-दान लाओ
आ, चरणों से यह सीमा-रेखा बिलगाओ।
पर बीते दिन, वर्ष, मास—
मेरी इन आँखों के आगे ही
फिर-फिर मुरझाए ये निपट काँस
मन मेरे! अब रेखा लाँघो!
आए तो आए
वह वन्य
छद्मधारी
अविचारी
कर खंडित-कलंकित
ले जाए तो ले जाए।
मन्दिर में ज्योतित
उजाले का प्रण करती
कम्पित निर्धूम शिखा-सी
यह अनिमेष लगन—
कौन वहाँ आतुर है?
किसे यहाँ देनी है
ऊँचा ललाट रखने को वह अग्नि की परीक्षा?