रोज़ मरता हूँ
महसूस करता हूँ,
जीत के बाद का दुःख
खुद को न पहचानने की पीड़ा
एक त्रासद भविष्य का भय
रो न पाने की विवशता!
कमबख्त पापुलिस्ट
दुनिया की पसंद से मुँह बनाते
हँसी के, खुशी के,
रहे न कहीं के!
समय से दफ्तर
समय से घर
‘म’ से मस्का
‘म’ से मर
यस सर, यस सर!
क्या जिया, क्या किया
सब गोल, सब ज़ीरो
बाबू हीरो!
कौड़ियों के मोल बांटते
विचार, मूल्य, वक़्त
ताकते ब्लाउज़, नाम, फायदा
बिक गए, बेच दिया
गाँव की पगडंडियों पर धूप में
कल्पित एक स्वप्न
बाबूजी की उम्मीदें
देश का ऋण
बिक गए, बेच दिया!
मर गया हूँ मैं
यह ‘खबर’ नहीं है।
महसूस करता हूँ!