पंद्रह डाउनलोड गाड़ी के छूटने में दो-एक मिनट की देर थी। हरी बत्ती दी जा चुकी थी और सिग्नल डाउनलोड हो चुका था। मुसाफ़िर अपने-अपने डिब्‍बों में जाकर बैठ चुके थे, जब सहसा दो फटेहाल औरतों में हाथापाई होने लगी। एक औरत, दूसरी की गोद में से बच्‍चा छीनने की कोशिश करने लगी और बच्‍चेवाली औरत एक हाथ से बच्‍चे को छाती से चिपकाए, दूसरे से उस औरत के साथ जूझती हुई, गाड़ी में चढ़ जाने की कोशिश करने लगी।

“छोड़, तुझे मौत खाए, छोड़, गाड़ी छूट रही है…।”

“नहीं दूँगी, मर जाऊँगी तो भी नहीं दूँगी…” दूसरी ने बच्‍चे के लिए फिर से झपटते हुए कहा।

कुछ देर पहले दोनों औरतें आपस में खड़ी बातें कर रही थीं, अभी दोनों छीना-झपटी करने लगी थीं। आसपास के लोग देखकर हैरान हुए। तमाशबीन इकट्ठे होने लगे। प्‍लेटफ़ॉर्म का बावर्दी हवलदार, जो नल पर पानी पीने के लिए जा रहा था, झगड़ा देखकर, छड़ी हिलाता हुआ आगे बढ़ आया।

“क्‍या बात है? क्‍या हल्‍ला मचा रही हो?” उसने दबदबे के साथ कहा।

हवलदार को देखकर दोनों औरतें ठिठक गईं। दोनों हाँफ रही थीं और जानवरों की तरह एक-दूसरी को घूरे जा रही थीं।

दो-एक मुसाफ़िरों को गाड़ी पर चढ़ते देखकर बच्‍चेवाली औरत फिर गाड़ी की ओर लपकी, लेकिन दूसरी ने झपटकर उसे पकड़ लिया और उसे खींचती हुई फिर प्‍लेटफ़ॉर्म के बीचोंबीच ले आयी। लटकते से अंगोंवाला, काला, दुबला-सा बच्‍चा, औरत के कंधे से लगकर सो रहा था। औरतों की हाथापाई में उसकी पतली लम्बूतरी-सी गर्दन, कभी झटका खाकर एक ओर को लुढ़क जाती, कभी दूसरी ओर को। लेकिन फिर भी उसकी नींद नहीं टूट रही थी।

“मत हल्‍ला करो, क्‍या बात है?” हवलदार ने छड़ी हिलाते हुए चिल्‍लाकर कहा और अपनी पतली बेंत की छड़ी दोनों औरतों के बीच खोंसकर उन्‍हें छुड़ाने की कोशिश करने लगा।

जो औरत बच्‍चा छीनने की कोशिश कर रही थी, उसने अपनी बड़ी-बड़ी कातर आँखों से हवलदार की ओर देखा और तड़पकर बोली, “मेरा बच्‍चा लिए जा रही है, नहीं दूँगी मैं बच्‍चा…।” और फिर एक बार वह बच्‍चा छीनने के लिए लपकी।

“गाड़ी छूट रही है नासपिट्टी, छोड़ मुझे!” बच्‍चेवाली औरत ने चिल्‍लाकर कहा और फिर गाड़ी के डिब्‍बे की ओर जाने लगी। हवलदार ने आगे बढ़कर उसका रास्‍ता रोक लिया।

“इसका बच्‍चा क्‍यों लिए जा रही है?” हवलदार ने कड़ककर कहा।

“इसका कहाँ है! बच्‍चा मेरा है।”

“वह कहती है मेरा है, बोलो किसका बच्‍चा है?”

“मेरा है”, दूसरी छोटी उम्र की औरत बोली और कहते ही रो पड़ी। रूखे, अस्‍त-व्‍यस्‍त बोलों के बीच उसका चेहरा तमतमा रहा था, लेकिन आँखों में अब भी डर समाया हुआ था। बदहवास और व्‍याकुल वह फिर बच्‍चे की ओर बढ़ी।

हवलदार जल्‍दी-से-जल्‍दी झगड़ा निबटाना चाहता था। बच्‍चेवाली औरत से बोला, “बच्‍चा इसके हवाले कर दो।”

“क्‍यों दे दूँ, बचचा मेरा है…।”

“तेरे पेट से पैदा हुआ था?”

बच्‍चेवाली औरत चुप हो गई और घूर-घूरकर दूसरी औरत को देखने लगी।

“बोल, तेरे पेट से पैदा हुआ था?” हवलदार ने फिर ग़ुस्से से पूछा।

“पेट से पैदा नहीं हुआ तो क्‍या, दूध तो मैंने पिलाया है। पिछले सात महीने से पिला रही हूँ।”

“दूध पिलाया है तो इससे बच्‍चा तेरा हो गया? बच्‍चे को ज़बरदस्‍ती लिए जा रही है?”

“ज़बरदस्‍ती क्‍यों ले जाऊँगी, मेरे अपने बच्‍चे सलामत रहें। इसी से पूछ लो, डायन सामने खड़ी है।” फिर दूसरी औरत को मुख़ातिब करके बोली, “कलमुँही बोलती क्‍यों नहीं? मैं तेरे से छीन के ले जा रही हूँ? हवलदारजी, इसने ख़ुद बच्‍चे को मेरी गोद में डाला है। यह तो इसे जनकर घूरे पर फेंकने जा रही थी, मैंने कहा कि ला मुझे दे दे, मैं इसे पाल लूँगी। तब से मैं इसे पाल रही हूँ। यह मुझे यहाँ छोड़ने आयी थी। यहाँ आकर मुकर गई।”

हवलदार दूसरी औरत की ओर मुड़ा, “तूने इसे ख़ुद दिया था बच्‍चा?”

युवा औरत की बड़ी-बड़ी उद्भ्रांत आँखें कुछ देर तक दूसरी औरत की ओर देखती रहीं, फिर झुक गईं।

“दिया था, पर बच्‍चा मेरा है, मैं क्‍यों दूँ, मैं नहीं दूँगी।”

और निस्‍सहाय-सी फिर दूसरी औरत की ओर देखने लगी। पहले जो आँसू आँखों में फूट पड़े थे, घबराहट के कारण फ़ौरन ही सूख गए।

“तूने दिया था तो अब क्‍यों वापस लेना चाहती है?”

कातर नेत्र फिर एक बार ऊपर को उठे और उसका सारा बदन काँप गया।

“यह इसे परदेस लिए जा रही है…।” और कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।

“मैं सदा तेरे पास पड़ी रहूँ?” बच्‍चेवाली औरत बाँहें पसार-पसारकर आसपास के लोगों को सुनाती हुई बोलने लगी, “मेरे डेरेवाले सभी लोग चले गए हैं। यह मुझे छोड़ती नहीं थी। कहती थी दस दिन और रुक जा, फिर चली जाना। पाँच दिन और रुक जा, चली जाना। करते-करते महीना हो गया। मैं यहाँ कैसे पड़ी रहूँ? आज गाड़ी चलने लगी तो कलमुँही मुकर गई है।”

“यह तेरे रिश्‍ते की है?” हवलदार ने पूछा।

“रिश्‍ते की क्‍यों होगी जी, यह काठियावाड़ की है, हम बंजारे हैं।”

“तू गाड़ी में कहाँ जा रही है?”

“‍फ़िरोज़पुर, जी!”

“वहाँ क्‍या है?”

“हम बंजारे हैं, हवलदारजी, पहले हमारे लोगों ने यहाँ ज़मीन ली थी, पूरे दो साल हलवाही की है। अब हमें फ़िरोज़पुर में ज़मीन मिली है। हमारे सभी लोग चले गए हैं, पर यह मुझे छोड़ती नहीं थी।”

हवलदार दुविधा में पड़ गया। एक ने जनकर फेंक दिया, दूसरी ने दूध पिलाकर बड़ा किया। बच्चा किसका हुआ?

“तेरा घर-घाट कोई नहीं है, जो अपना बच्‍चा इसे दे दिया? तू रहती कहाँ है?” हवलदार ने बच्‍चे की माँ से पूछा।

“यह कहाँ रहेगी जी, पुल के पास फूस के झोंपड़े हैं, यह वहीं पर रहती है। हम भी वहीं पर रहते थे। यह मेरी पड़ोसिन है जी, मजूरी करती है। इसकी तो नाल भी मैंने काटी थी।”

बच्‍चे की माँ उद्भ्रांत-सी अपने बच्‍चे की ओर देखे जा रही थी। लगता जैसे वह कुछ भी सुन नहीं रही है।

“इसका घरवाला कहाँ है?…”

“इसका घरवाला कोई नहीं जी। यह तो मर्दों के पीछे भागती फिरती है, कोई इसे बसाता नहीं। इसका घरबार होता तो यह बच्‍चे को जनकर फेंकने क्‍यों जाती?”

इतने में गार्ड ने सीटी दी।

भीड़ में से छँटकर लोग अपने-अपने डिब्‍बों की ओर जाने लगे। बंजारन भी डिब्‍बे की ओर घूमी। बच्‍चे की माँ ने आगे बढ़कर उसके पाँव पकड़ लिए।

“मत जा, मत ले जा मेरे बच्‍चे को, मत ले जा!”

कुछेक लोगों को तरस आया। हवलदार ने दृढ़ता से आगे बढ़कर बंजारन से कहा, “बच्‍चा वापस दे दे। अगर माँ बच्‍चा नहीं देना चाहती तो तू उसे नहीं ले जा सकती।”

हवलदार की आवाज़ में दृढ़ता थी। बंजारन को इस निर्णय की आशा नहीं थी। वह छटपटा गई, “मैं क्‍यों दे दूँ जी, अपने बच्‍चे को भी कोई देता है? किसको दे दूँ। इसका घर है, न घाट…”

“गाड़ी छूटनेवाली है, जल्‍दी करो, बच्‍चा माँ के हवाले करो वरना हवालात में दे दूँगा।” हवलदार ने अबकी बार कड़ककर कहा।

औरत घबरा गई और किंकर्तव्‍यविमूढ़-सी आसपास खड़े लोगों की ओर देखने लगी। फिर अपनी साथिन की ओर देखते हुए चिल्‍लाकर बोली, “हरामज़ादी! कुतिया! यहाँ आकर मुकर गई। ले बेग़ैरत, ले सम्भाल, फिर कहना दूध पिलाने को, ज़हर पिलाऊँगी, इसे भी और तुझे भी। सात महीने तक अपने बच्‍चे का पेट काटकर इसे दूध पिलाया है…।” और झटककर बच्‍चा उसके हाथ में दे दिया और फूट-फूटकर रोने लगी।

माँ ने बच्‍चा छाती से लगा लिया। बच्‍चे के मिलते ही वह भी ममता की मारी रोने लगी।

अजीब तमाशा था। दोनों औरतें रोए जा रही थीं। दोनों एक-दूसरी की दुश्‍मन, दोनों एक ही बच्‍चे की माताएँ। बेघर लोगों को न हँसने की तमीज़ होती है, न रोने की। और कलह का कारण, दुबला-पतला, पित्त का मारा बच्‍चा, अब भी मुट्ठियाँ भींचे सो रहा था।

बंजारन गालियाँ बकती, रोती, बड़बड़ाती गाड़ी में चढ़ गई।

“तुम्‍हें तुम्‍हारा बच्‍चा मिल गया है। यहाँ से चली जाओ फ़ौरन…”

हवलदार ने सोए बच्‍चे की पीठ पर छड़ी की नोंक रखते हुए, धमकाकर कहा, “फ़ौरन चली जाओ यहाँ से!”

बच्‍चे को छाती से चिपकाए, माँ पीछे हट गई। भीड़ बिखर गई। डिब्‍बे के दरवाज़े में खड़ी बंजारन अभी भी चिल्‍लाए जा रही थी, “कंजरी, हरामज़ादी, तूने इसे जनते ही क्‍यों नहीं मार डाला? जब भी मार डालेगी, तभी मेरे दिल को चैन मिलेगा, नासपिट्टी…!”

बच्‍चे ने गोद पहचान रखी थी या तो इस कारण रहा हो या हवलदार की बेंत की नोक लगने के कारण, बच्‍चा जाग गया और अपनी नन्‍हीं-नन्‍हीं मुट्ठियों से पहले तो अपनी नाक पीसने लगा, फिर आँखें, और थोड़ी देर के बाद अपनी मुट्ठी मुँह में ले जाकर चूसने लगा। औरत अभी भी उद्भ्रांत-सी पीछे हट गई और प्‍लेटफ़ॉर्म की दीवार के साथ जा खड़ी हुई।

बच्‍चा दूध के धोखे में अपनी मुट्ठी चूसता रहा, पर दूध न मिलता देख बिल्‍कुल जग गया और दोनों टाँगें ज़ोर-ज़ोर से पटककर रोने लगा। माँ ने उसे दाएँ कंधे से हटाकर बाएँ कंधे के साथ सटा लिया। लेकिन बच्‍चा और भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।

माँ परेशान हो उठी। कभी बच्‍चे को एक करवट उठाती, कभी दूसरी; कभी दाएँ कंधे पर उसका सिर रखती, कभी बाएँ पर।

बच्‍चे का रोना सुनकर डिब्‍बे के दरवाज़े में खड़ी बंजारन फिर चिल्‍लाने लगी, “मार डाल, तू इसे मार डाल! नासपिट्टी, इसे ज़हर क्‍यों नहीं दे देती! दोपहर से इसके मुँह में दूध की बूँद नहीं गई। बच्‍चा रोएगा नहीं?”

हवलदार छड़ी झुलाता वहाँ से जा चुका था। दो-एक कुलियों को छोड़कर डिब्‍बे के सामने कोई नहीं था। दूर, पीछे की ओर, नीली वर्दीवाला गार्ड हरी झंडी दिखा रहा था।

गाड़ी ने सीटी दी और चलने को हुई।

बच्‍चा रोए जा रहा था। माँ ने अपने फटे हुए कुर्ते की जेब में से मूँगफली के कुछेक दाने निकाले और बच्‍चे के मुँह में ठूँसने लगी।

“नासपिट्टी, यह क्‍या उसके मुँह में डाल रही है? मेरे बच्‍चे को मार डालेगी। कसाइन, कंजरी…!”

और घूमकर पहले एक छोटा-सा टीन का बक्‍सा और फिर छोटी-सी गठरी प्‍लेटफ़ॉर्म पर फेंकी और बड़बड़ाती, गालियाँ बकती हुई गाड़ी पर से उतर आयी, “हरामज़ादी, मेरी गाड़ी छुड़ा दी। मौत खाए तुझे! नासपिट्टी…!”

गाड़ी निकल गई। एक-एक करके कुली स्‍टेशन के बाहर चले गए। प्‍लेटफ़ॉर्म पर मौन छा गया। हवलदार अपनी गश्‍त पर दूर प्‍लेटफ़ॉर्म के दूसरे सिरे तक पहुँच चुका था। लेकिन जब छड़ी झुलाता हुआ वह वापस लौटा, तो प्‍लेटफ़ॉर्म के एक कोने में दीवार के साथ सटकर वही दोनों औरतें बैठी थीं। बंजारन अपनी गोद में बच्‍चे को लिटाए, उसे अपने आँचल से ढके, दूध पिला रही थी और पास बैठी बच्‍चे की माँ धीरे-धीरे अपने लाड़ले के बाल सहला रही थी।

Book by Bhisham Sahni:

भीष्म साहनी
भीष्म साहनी (८ अगस्त १९१५- ११ जुलाई २००३) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। १९३७ में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने १९५८ में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।