माँ ने कहा, “टिल्लू में लाख ऐब हों, मैंने माना, लेकिन एक गुण ऐसा भी है जिससे लाखों ऐब ढँक जाते हैं – वह नमकहराम नहीं है!”
“मैंने तो कभी नमकहराम कहा नहीं उसे”, मैंने जवाब दिया – “वह काहिल है और नौकर को काहिल ही न होना चाहिए। काम तो रो-गाकर वह सभी करता ही है, मगर रोज ही झकझक उससे करनी पड़ती है। अब आज ही की लो! शाम ही से मेरे सिर में दर्द है! और वह दवा लाने गया है शाम ही से! देखो तो घड़ी अम्मा! रात के 9 बज गए! अच्छा यह तो सिर-दर्द है, अगर कॉलरा होता? तब तो, टिल्लू ने अब तक बारह ही बजा दिए होते!”
“भगवान मुद्दई को भी हैजा-कॉलरा का शिकार न बनाए।” माँ ने सहमकर प्रार्थना और भर्त्सना के स्वर में कहा, “तू भी कैसी बातें कहता है। मैं टिल्लू की कद्र करती हूँ, यों कि वह सारे घर को अपना समझता है। उसके सामने कोई भी बात बे-डर की जाती है और की जा सकती है। सब नौकरों में यह बात नहीं, दूसरे ही दिन – दूसरे अपने मालिक के घर की एक-एक बात गलियों में गाते नजर आते हैं। टिल्लू तो बिलकुल अपना आदमी है।”
इतने में दवा की शीशी लिए चींटी-चाल वह अंदर दाखिल हुआ। देखते ही मैं मारे गुस्सा के जलकर अंगार हो गया, “मैंने तो समझा…” मैंने ताना दिया, “तुम्हारे ऊपर मोटरलारी चढ़ गई।”
“चला ही तो आ रहा हूँ।” नाक फुलाकर वह बोला – “आदमी आखिर आदमी है, मोटरलारी नहीं बाबूजी।”
“अबे बाबूजी के नाने!” मैंने गाली के लहजे में कहा। जिसे सुन इशारे से माँ ने अपशब्द उसे कहने से मुझे मना किया, “शाम का गया-गया अब लौटा है? सिर की दवा लेने गया था या दारू पीने?”
“डॉक्टर साहब नहीं थे घर पर।” रुआंसा होकर उसने कहा, “अभी आए हैं, दवा मिली है तो भागता ही आ रहा हूँ। जब देखो तभी आप मुझ पर उधार खाए बैठे रहते हैं बाबूजी!” वह रोने लगा, “गालियाँ और अबे-तबे मैं नहीं सुनने का। आपके पिताजी, भगवान उन्हें स्वर्ग में दूध दे, हमेशा मुझे टिल्लू भैया! पुकारा करते थे। मालकिन आज भी मेरी इज्जत करती हैं और आप जब देखो तभी अबे! अबे! बाज आया ऐसी नौकरी से मैं – भूल-चूक – माँजी! मेरी माफ करिएगा, अब इस घर में मेरी गुजर नहीं। इस पकी उम्र में कच्चे-बच्चों की लात मुझसे नहीं सही जा सकती।”
और माँ रोकती ही रहीं उसे, लेकिन उस दिन वह न रुका। उसके अपमान का प्याला शायद मैंने भर दिया था।
2
दूसरे दिन एक-दूसरे नौकर को रखने के लिए मैंने बुलवाया और वह होते-सवेरे नीला जाँघिया, बूटेदार पुरानी रेशमी कमीज पहन और खूब तेल लगी जुल्फ झाड़कर आ गया। उसे नीचे खड़ाकर मैं माँ के पास गया – “देखा माँ – देखा? वही विश्वनाथ है। इसी की तारीफें मैं तुमसे किया करता था कि नौकर नहीं, पूरा पढ़ा-लिखा जेंटिलमैन है। देखो उसकी सफाई – नेकर, कमीज, सिर के बाल सुधरे। टिल्लू तो जंगली कुत्ते की तरह हमेशा गंदा ही रहा।”
“इसकी जो सफाई तू पसंद करता है।” माँ ने मुस्कराकर कहा, “उसी को तेरे पिता ‘चिकनियाँपन’ कहा करते थे और ऐसे नौकरों को दरवाजे पर चढ़ने तक नहीं देते थे। ऊपर से ये जितने चिकने होते हैं, अंदर से उतने ही मैले! टिल्लू आलसी हो, मूर्ख हो, मगर हीरा आदमी है।”
“तुम्हें तो पुरानी ही चीजें रुचती हैं अम्मा – टिल्लू तो मेरी नजर में इस लायक भी नहीं कि उसके हाथ से किसी को एक लोटा पानी भी पिलाया जाए – मैल की एक काली परत-सी जमाए रखता है।”
“खैर!” माँ असंतुष्ट हुई – “अब टिल्लू की जान क्यों मारता है, वह तो गया न? विश्वनाथ बड़ा जंटूमैन है तो रख ले न, मगर बिना महीना-दो-महीना उसका मिजाज जाने मैं उसे जनाने में न जाने दूँगी, सो जान ले।”
“तो क्या केवल अपना काम करने को मैं नौकर रखूँ?”
“केवल अपना नहीं।” माँ ने समझाया, “विश्वनाथ से पहले बाहर का काम ले और उसका मिजाज देख, फिर विश्वास मजबूत होने पर वह अंदर-बाहर दोनों देखेगा।”
3
विश्वनाथ के बारे में माँ को अधिक कठोर देख मैंने टिल्लू को उनकी पसंद माना और उसे नौकर रख लिया।
“मेरी माँ बड़ी सख्त हैं – घर के मामलों में।” मैंने उसे समझाया पहले ही दिन – “अभी तू जनानखाने में न जाना, जो जरूरत हो बाहर से पुकारकर माँग लेना। अभी कुछ दिन बाहर का काम सँभालो, फिर माँ समझ जाएँगी।”
“अजी सरकार!” विश्वनाथ बत्तीसी दिखाकर बोला – “मैंने बहत्तर जगह अब तक काम किए हैं, ऐसा-वैसा होता तो एक जगह एक दिन भी टिक पाता?”
“खैर, बहत्तर जगह काम करने को मेरी माँ सर्टिफिकेट न मानेंगी।” मैंने गंभीरता से बतलाया उसे – “भले ही मैं यह मान लूँ कि ऐसा आदमी आदमियों के मिजाज का पारखी हो सकता है और ऐसा नौकर बेशकीमत भी हो सकता है।”
“सो तो।” उसने मुस्कान में लपेटकर कहा, “आप खुद ही देखेंगे – काम के लिए बातों की कोई जरूरत नहीं।”
“अच्छा।” मैंने पूछा, “विश्वनाथ! काम सबसे अच्छा तुम क्या कर सकते हो?”
“हुजूर!” उसने जवाब दिया – “वैसे तो जब बचपन से ही नौकरियाँ कर रहा हूँ तो सभी काम करने की हिम्मत रखता हूँ!”
“जैसे लड़ाई-भिड़ाई!” मैंने उसकी दुर्बल देह देखकर संदेह से सवाल किया।
“बस, यही एक काम अपने नहीं कर सकते।” वह हँसा, “खूब हुजूर ने सवाल किया कि पहले ही मैं फेल हो गया। बात यह है कि एक बार की लड़ाई में चोरों ने मुझे इतना मारा था कि जब भी पुरवा हवा चलती है, अब भी देह फोड़े-सी दुखती है। तभी तो मैं टूट-सा गया हूँ, नहीं तो सरकार ऐसा मरतिंगहा नहीं था विश्वनाथ। दस-पाँच से सटाने के काबिल था।”
“अच्छा, फिर क्या-क्या कर सकते हो?”
“सब कुछ।” अकड़कर वह बोला – “यहाँ तक कि लड़ाई-भिड़ाई भी। अजी सरकार! हाथ-पाँव से कूढ़ लड़ा करते हैं – आपकी कृपा से लड़ाई दिमाग की लड़ी जा सकती है, जिसमें आप घर बैठे ही रहें और दूसरा मुँह की खा जाए।”
“खूब!”
“और काम? काम मेरा है नौकरी। हाट-बाजार, सौदासुल्फ मेरा काम। घर की रखवाली मेरा काम। खाना मैं ऐसा पका दूँ कि खाते ही बने। लेकिन सबसे अच्छा मैं जानता हूँ मालिश करना, देह दबाना। इस काम के तो सर्टिफिकेट भी हैं मेरे पास सोलह!”
“खूब!” मैंने कहा, “यह बात तुमने खूब बतलाई। मुझे मालिश कराने का बड़ा शौक है, टिल्लू को यह काम मुतलक नहीं आता था। देह दबाने को कहो तो पीठ या पाँव पर हाथ रखकर वह सोने लगता और बदबू करता था। पास बैठना मुश्किल। दबाता भी तो सेवा कम और गोबर अधिक पाथता था।”
4
और रात में जब वह देह दबाने लगा, बेशक उसके हाथ इस फन में मँजे हुए थे, तब चंद बातें और करने पर विश्वनाथ का स्वभाव विशेष प्रकट हुआ।
मैंने पूछा – “तुम कहते थे,” टिल्लू को ‘तू’ कहनेवाला मैं विश्वनाथ को ‘तुम’ कहता था, वह साफ-सुथरा जो था, “तुमने रामगनेशदास के यहाँ नौकरी की थी, वहाँ से क्यों छोड़ी? वह तो बड़ी अच्छी जगह थी।”
“अजी सरकार, दूर के ढोल सुहावने।” मेरी पीठ चाँपते हुए वह कहने लगा – “रामगनेशदास के यहाँ मैंने तीन साल काम किया, मगर आदमी वह बदमाश है, बदमाश!”
“अरे, जिसके पास तुम तीन साल खपे – वह बदमाश!” उचककर मैंने करवट बदल ली विश्वनाथ के इस ढीठ वक्तव्य पर – “रामगनेश कैसे बदमाश हुआ आखिर…?”
“सो आप नहीं जान सकते – सो, तो हम गरीब नौकर-चाकर ही जानते हैं। रामगनेश की चार जवान लड़कियाँ हैं हुजूर! और जब किसी नौकर को कई महीने की तनख्वाह मारकर निकालना होता है, रामगनेशदास या उनकी बीवी किसी-न-किसी लड़की से एक धक्का उस नौकर को लगवा देते हैं, और फिर उसकी चाल-चलन पर धब्बा!”
“तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ होगा?”
“बिल्कुल…! छह महीने की तनख्वाह बाकी थी – रुपए साठ नकद और रामगनेशदास देना नहीं चाहते थे और उन्होंने कहा जाकर बिस्तर ठीक करने में बेटी किशोरी की मदद करो! अब किशोरी अठारह बरस की पठिया बिस्तर ठीक करने के वक्त गिर पड़ी मेरी गोद में! मैंने कहा – हत्! तू मेरी बहन है। और लगी साली चिल्लाने – बेशर्म! विश्वनाथ ने मेरा सीना जोर से दबा दिया!”
विश्वनाथ का किस्सा सुनते-सुनते मैं माँ की बातें सोचने लगा। सोचने लगा, क्यों उन्होंने देखते ही इस आदमी को अच्छा नहीं समझा। मगर बातें मैं उससे करता ही रहा – “फिर तो बड़ा हंगामा उठा होगा विश्वनाथ!” मैंने पूछा।
“हंगामा इतने ही का कि छह महीने की तनख्वाह बिना लिए विश्वनाथ भाग जाए, मगर विश्वनाथ ने कोई कच्ची गोटियाँ नहीं खेली थीं – मैंने रामगनेशदास से साफ-साफ कहा कि सरकार! मेरा हिसाब पहले साफ कर दीजिए और किशोरी की बात बंद कीजिए नहीं तो, मैं ठहरा नौकर आदमी। अगर बात बढ़ी तो बदनामी किसकी होगी।” फिर वह मुझसे कहने लगा – “अदालत में बात जाती तो मैं कह देता कि मैं जवान, वह जवान, ‘वह’ मेरी है, दिल लेकर दगा कर रही है।”
वह कहता रहा और मैं सोचता रहा कि माँ ने तो ‘साइकॉलिजी’ या ‘मनुष्य-स्वभाव शास्त्र’ का अध्ययन किया नहीं, फिर वह इसे घर के अयोग्य कैसे पहचान गईं? और सब कुछ पढ़कर भी मैंने झख मारा। यह तो नौकर नहीं, गुंडा है – गुंडा!
मगर उससे मैंने पुनः पूछा- “और मिस्टर गर्ग? गर्ग तो बड़े समाज-सुधारक, आर्यसमाजी, हिंदू सभावाले नेता हैं! उनसे तुम्हारी क्यों नहीं पटी?”
“बदमाश है हुजूर।” उसने मेरा हाथ दबाते हुए कहा, “माफ कीजिएगा। आप कहेंगे विश्वनाथ गुस्ताख है – ये लीडर और लेक्चर देनेवाले साले पूरे बने हुए होते हैं। मिस्टर गर्ग की ‘विडो’ भाभी हैं और बीवी है ऐसी मोटी, जैसी हथिनी, और मिस्टर गर्ग दोनों की खातिर करते हैं! अब उन्हें ऐसा नौकर चाहिए, जो मौका देखकर उनके पास जाए या न जाए। एक आर्डर, दो बजे चाय बिना पूछे दो! लेकिन एक-दो बजे आप अपनी भाभी से खेल-हँस रहे थे और विश्वनाथ हो गया बदकिस्मती से दाल-भात में मूसलचंद! बस – ‘अबे बदतमीज’। उन्होंने अपनी तमीज खुल जाने पर गुस्सा जाहिर किया, ‘आने के पहले खाँसा-खखारा जाता है, या भले घर में जब-तब यों ही घुसा जाता है?’ मैंने कहा, ‘आपके हुक्म से चाय लेकर दो बजे हाजिर हूँ, यह अगर बदतमीजी है तो मेरी तनख्वाह साफ कर दीजिए, अपनी नौकरी के लिए एम.ए. पास तमीजदार खोजिए’।”
“मगर ठाकुर रामगोपाल की नौकरी तुमने क्यों छोड़ी? उन्हें तो सारा शहर साधु कहता है कि वह भी बदमाश है।” मैंने जम्हाई लेते हुए एक और सवाल किया।
“ठाकुर रामगोपाल में वैसी कोई बुराई नहीं, वह जोरू के गुलाम हैं। औरत के साथ बैठकर खाना खाते हैं। उसी के चुल्लू से पानी पीते हैं। पूरे मजनूँ उस लैला के हैं, जिसका नाम है तो ‘चमेली’ मगर होना चाहिए था ‘काली’। एक सेर लेती है दूध। बीस बार पीती चाय – तिस पर तुर्रा यह – विश्वनाथ, दूध क्या हो जाता है? आखिर सेरभर दूध कोई समुद्र तो है नहीं कि बाईजी का सारा काम चले। ऐसे ही भाजी मँगावेंगी डेढ़ पैसे की – और परवल! खाने बैठेंगे तो ठाकुर भले न भी चाहें, उसे चाहिए विश्वनाथ, भाजी लाओ! जरा ज्यादा लाना। मतलब नौकर भाजी न खाए। खाएँ महज माँजी – अजी सरकार, खाने ही के लिए तो अधम चाकरी करते हैं और जब उसी पर मुसीबत हो तो कैसे गुजारा हो सकता है? रामगोपाल कैसे भलेमानस हैं, मगर उनकी ‘वह’- वह तो नौकरों के सीने पर शेरनी-सी सवार चौबीस घंटे रहती है – मैंने कहा, मेरा हिसाब साफ कर दीजिए। ऐसी झिकझिक की नौकरी मुझसे नहीं हो सकती।”
5
पहले ही दिन के अनुभव से विश्वनाथ से मैं तो डर गया और रात को देह दबाने के वक्त उसके किस्से सुनते ही उसी वक्त उसे निकाल देने की सोचने लगा – मगर बाप रे! वह तो आदमी नहीं, पूरा समाचारपत्र है – सनसनीखेज। इसको नौकर रखना तो इसके ‘सहस्त्र-रजनी-चरित्र’ में अपने खानदान का भी एक किस्सा जोड़ना होगा।
फिर भी उसी वक्त उसे निकालने में मैं बदनामी से डरा और मौका देखने लगा। और ऐसे नौकरों की बदतमीजी के लिए मौका दूर तक नहीं देखना पड़ता। उसी दिन, शाम को, अपने बाग के पीछे मैंने उसे एक नौकर से बातें करते और सिगरेट में चरस पीते देखा। मैं फाटक के पास ही संयोग से टहलता लताकुंज में छिपा हुआ था। वे मुझे देख नहीं रहे थे।
“कैसी नौकरी है?” उसके दोस्त ने दरियाफ्त किया।
“यों ही – साग-सत्तू-सी लगती है।” विश्वनाथ ने जवाब दिया – “पुराने ढंग के लोग हैं। यहाँ राग-रंग शायद ही मिले।”
“मगर और तो सब ठीक है न?”
“खाक-पत्थर, ठीक है।” उसने कहा, “तेल में बघारी भाजी, मोटी-मोटी रोटियाँ, दाल है तो भाजी नहीं, भाजी है तो दाल नहीं – घर में दूध-दही सब, मगर नौकर को देखता हूँ कब देते हैं। अड़तालीस घंटे तो काम बजाते हो गए। अभी तक तेल की भाजी, मोटी रोटियाँ, यही समझ!”
“और मिस्टर गर्ग की तरह इस घर में भी पटाखे हैं?” उसके यार ने पूछा।
“अजी, एक डोकरी है – वही साली सब कुछ है। नौकरों को बिना वैष्णव बनाए घर में दाखिल नहीं होने देती। पता नहीं, इस घर में शमा है कि गुल।”
एक बात और हुई। तीसरे दिन वह माँ के मुँह पर आ गया। वह विश्वनाथ को एक बाल्टी पानी से पूजा की कोठरी धो देने को कह रही थीं और वह उन्हें निर्भय जवाब दे रहा था कि – “यह काम नौकर का नहीं, भंगी का है। वाह जी, मैंने बहत्तर जगह काम किए, मगर बाल्टी के पानी और झाड़ू को कभी नहीं छुआ – वह मुझसे न होगा।”
“तब नौकर रखने से फायदा?” माँ को बेशक नागवार लगीं उसकी बातें।
“फायदा तो माँजी।” उसने उन्हें पुनः धृष्ट उत्तर दिया – “वही जानें।” उसका आशय मुझसे था, “बाबूजी, जिन्होंने मुझे नौकर रखा है। आप तो घोड़े को गधा बना देना चाहती है माँजी!”
“विश्वनाथ!” दूसरी कोठरी से निकलकर मैंने डाँटा – “इस घर की मालकिन वही हैं, मैं नहीं! मेरी यहाँ एक भी नहीं चलती। अगर तुम ठाकुर की कोठरी साफ नहीं कर सकते तो साफ बात यह है कि तुम्हारी यहाँ जरूरत नहीं।”
“तो लाइए मेरा हिसाब साफ कर दीजिए।”
“अभी!”
“मगर विश्वनाथ!” माँ ने कहा, “कोठरी न साफ करो, नौकरी भी छोड़ दो, लेकिन जाना खाना खा लेने के बाद, हिसाब चाहे जाओ अभी ले लो। भैया, यह तो गृहस्थी है। नौकर-मालिक परिवार की तरह मिलकर रहते हैं और घर के हरएक काम को निस्संकोच कर लेते हैं।”
…
विश्वनाथ को देने के लिए पैसे लाने को जब मैं अपने कमरे की तरफ जाने लगा, तब राह में ठाकुरजी की कोठरी में सुना खुरखुर सुर – और देखी टिल्लू की गंदी शक्ल – वह बड़े गर्व से ठाकुर की कोठरी पानी से धो रहा था। वह अपना महत्व समझता था मानो!