गोरा वर्ण,
सस्ती लाली।

रात में जलती ढिबरी,
उस पर पगा पका काजल 
और छोटी बिंदी।

सस्ता टेलकम
पफ़ बने केश लम्बे।

तमाशा दारूबाज़ बाप का,
घर है टीन में दमकता।
रातों में घना पसीना गमकता
ढका कपड़ों में कसा सीना।
सिंझी हड्डी के मसाले जैसी
अन्दर तक उतरी है गरीबी।

किसी गाड़ी के टूटे
बिखरे से साइड मिरर में,
जब वो खुद को निखारती,
और फिर बांधती बाल,
निहारती।

आज भी मिथुन की फ़ैन
नब्बे की हिरोईन उसमें पाती।

साधारण।

न कल्पना किसी कवि की,
न किसी महाकाव्य की नायिका।
न उस पर फिलिम बनेगी
न होगी किसी भद्र की परिणीता।
लम्बी शैतानी आँतों जैसे,
ट्रैकों पर कचरा है बिनती।

योनी होगी लवणों से पसरी
पुराने सूती कपड़ों के बीच
गंध भारी होगी बिसरी।

काँखों से फट गई है सलवार
बहता पसीना बन नमक वहाँ से।
तेजाबी खट्टे चूरन से छिली जीभ जैसी
छिली त्वचा यहाँ वहाँ पे।

हो बेख़बर कीली क़तरों से
तेज़ाबों, आँखों, सलवारों से
बाँधे चुन्नी अपनी कमर पर है
वो पप्पू की बेटी है
दुर्दांत को अपने सफ़र पर है।

सफ़र में चलती इधर उधर है
बिछी धरती पर मन में फ़िकर है।

वो एक साहित्यिक प्रयोगशाला है,
मंटो, चन्दर, चुगताई का उस पर साया है।
चलती सी एक कहानी,
एक फ़लसफ़ा है।

अभी कल की बात है
एक बड़े पारखी अफ़सर की नज़र पड़ी उस पर।
बना अभियुक्त ज़हरखुरानी का
रोके रखा उसे दो पहर।

हुई कुछ फिर सौदेबाज़ी
थी मन में भाई की भूख
बाप की लफ़्फ़ाज़ी।

सिसकियों का सौदा,
व्यापार गोश्त का।
झुकी वो,
सूंघा कुछ गुह्य भागों को
फिर सतीत्व की छाप लिये
बरी हुई शैतानों से
थे या न थे
उन इंसानों से।

सारे दुख भरकर
फटी बेवाइओं पर
घाटा उसकी नफ़स पर है।
वो पप्पू की बेटी है
दुर्दांत को अपने सफ़र पर है।

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अनिमेष तिवारी
भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश करता हूँ।