वृक्ष मूक नहीं होते, उनकी होती है आवाज़,
विरली-सी, सांकेतिक भाषा।
वो ख़ुद कुछ नहीं बोलते लेकिन
घोंसलों में भरते हैं नन्हें पक्षी जब
विलय की किलकारियाँ,
उनको रिझाने, वृक्ष बजाते हैं
पत्तों का झुनझुना।
बारिश की बूँदें जब होती हैं उच्छृंखल,
तो बजता है जल-तरंग
और पत्ते गिरकर धरती पर,
देते हैं तबले-सी ताल।
गूँज उठती है एक पीड़ा जो कानों से नहीं,
हृदयग्राही होती है।
एक वृक्ष कटने पर एक वृक्ष नहीं,
सहस्त्र प्रकृति गूँगी होती है।