और कुछ देर में जब फिर मेरे तन्हा दिल को
फ़िक्र आ लेगी कि तन्हाई का क्या चारा करे
दर्द आएगा दबे पाँव लिए सुर्ख़ चराग़
वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे
शोला-ए-दर्द जो पहलू में लपक उट्ठेगा
दिल की दीवार पे हर नक़्श दमक उट्ठेगा
हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ कहीं, गोशा-ए-रुख़्सार कहीं
हिज्र का दश्त कहीं, गुलशन-ए-दीदार कहीं
लुत्फ़ की बात कहीं, प्यार का इक़रार कहीं
दिल से फिर होगी मेरी बात कि ऐ दिल, ऐ दिल
ये जो महबूब बना है तेरी तन्हाई का
ये तो मेहमाँ है घड़ी-भर का, चला जाएगा
उससे कब तेरी मुसीबत का मुदावा होगा
मुश्तइल हो के अभी उट्ठेंगे वहशी साए
ये चला जाएगा, रह जाएँगे बाक़ी साए
रात-भर जिन से तेरा ख़ून-ख़राबा होगा
जंग ठहरी है, कोई खेल नहीं है ऐ दिल
दुश्मन-ए-जाँ हैं सभी सारे के सारे क़ातिल
ये कड़ी रात भी, ये साए भी, तन्हाई भी
दर्द और जंग में कुछ मेल नहीं है ऐ दिल
लाओ सुल्गाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अँगार
तैश की आतिश-ए-जर्रार कहाँ है, लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है, लाओ
जिसमें गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुंतज़िर होगा अंधेरे की फ़सीलों के उधर
उनको शोलों के रजज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुँचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुब्ह, बता तो देंगे!
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे'