Poems: Keshav Sharan
जाड़े की धूप
जगत को
जगमग-जगमग
कर रही है धूप
पर इससे भी बढ़कर
जगत के प्राणियों के
शुष्क
मलिन
रिक्त
ठण्डे रोम कूपों को
अपनी अमृतमयी
धवल
जीवनोष्मा से
भर रही है धूप
कोमल
कमनीय
अनूप
यह जाड़े की धूप
नदी और सभ्यता
नदी के पास
घाट हैं
पीने का पानी
हो न हो
किंतु घाट नये-पुराने सुंदर हैं
नदी के पास
खेत हैं
सींचने का पानी
हो न हो
मगर खेत हरे-भरे समुंदर हैं
नदी के पास
सभ्यता आज भी
आबाद है
पर बरबाद है
नदी!
चश्मदीद और भोगी
उधर आसमान की ऊँचाई से
एक सितारा टूटता है
और रंगीन रोशनियाँ बिखेरता
स्याह शून्य में
समा जाता है
इधर रंगीन रोशनियाँ बिखेर लेने के बाद
एक आह उठती है
सीने की गहराई से
और समा जाती है
अश्वेत निर्वात् में
मैं चश्मदीद
मैं भोगी
चिर वियोगी
काली-काली रात में
अभिव्यक्ति एक भूख
कलाओं को समृद्ध करना था
कर दिया
कलाओं के लिए मरना था
मर लिया
संसार की सच्ची प्रतिभाओं ने
अपना काम किया
बाज़ार को जितनी आवश्यकता थी
उसने उतना लिया-दिया
जीवन-अभिव्यक्ति की आवश्यकता अनंत थी
अनंत है
अभिव्यक्ति भी एक भूख है
भिड़ंत है
सबसे ज़्यादा छिनी जाती हैं
जिसकी रोटियाँ
बलात्
आज
स्वाभाविक
स्वतःस्फूर्त
कुछ भी नहीं
हमारी संस्कृति में
व्यक्ति की कोई क्रिया
समाज का कोई कार्य
सरकार का कोई कर्म
प्यार
रिवाज
या फिर जो विकास हो रहा है
ऐसा लग रहा कि
सब बलात् हो रहा है
और यह बलात्
कितना शक्तिशाली है
कि प्रकृति का भी
बाधित है काज
हमारी संस्कृति में
कुछ भी नहीं
स्वतःस्फूर्त
स्वाभाविक
आज!
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