Poems: Rahul Boyal
सभ्यता और संस्कार
तुम उधर क्या देख रही हो?
मैं स्वयं से ही पूछ बैठती हूँ
कभी-कभार
इधर बाज़ार की संस्कृति
उधर उपभोग की सभ्यता
संस्कारी बनूँ कि सभ्य?
ओ मित्र समय
तुम्ही करो तय।
इधर मिला जो आदमी
वो सोचता है- लाभ कमाऊँ
उधर मिला जो आदमी
वो विचारता है – ठगा न जाऊँ
मैं दोनों के लिए ही अलभ्य
ओ मित्र समय
तुम्ही करो तय।
तपस्विनी
मुझे एक कविता लिखनी है,
पिछले कई सालों से तपस्विनी-सी हूँ
खोज रही हूँ अहसासों का ईश्वर,
पर हर बार उलझ जाती हूँ शब्दों के जाल में।
कभी तेरे नैनों में घर दिखता है,
कभी दिख जाता है समाज शीशे में।
कभी ख़ुशी लिख देती हूँ, कभी संतोष,
ख़ुदकुशी भी लिखती हूँ, कभी जीवन उद्घोष
कैसे लिखूँ कोई बात कि
कविता ही हो, कविता-सी न हो
क्या तुम्हारा पौरुष मुझे इजाज़त देगा?
यह भी पढ़ें: राहुल बोयल की कविता ‘विरोध का समुचित तरीक़ा’
Books by Rahul Boyal: