व्यूह बहुत पहले रचा जा चुका होता है
जाने कितने दिवसों से
चतुरता और कुटिलता
मिलकर रणनीति तय करते हैं
तब एक प्रणय-षड्यंत्र तैयार किया जाता है
प्रेयस एक कुटिल लुब्धक है
ख़ूब भान है उसे
कब, कैसे, कहाँ आखेट करना है
इतनी सफ़ाई से बिछाता है माया-जाल
कि
उपस्थिति भी अनुपस्थिति का भ्रम देती है
मोहपाश में बँधा हृदय
मात्र चमकीले मोती ही देख पाता है बस

प्रेमालाप, मादक सम्वाद
उसके कुटिल योद्धा हैं
जो घेरकर बातों से विकल कर देते हृदय
और अन्तस में भर देते गहरी आसक्ति
अब आठों पहर
ज़िहन में ख़यालों की होड़ मचने लगती है
बस ठीक उसी समय
वह चलता है अपनी अन्तिम चाल
और प्रयोग करता है सबसे दमदार मोहरा
अब प्रेमिल हृदय
पूर्णत: घिर चुका होता है प्रणय-व्यूह में…
प्रेम के खेल में प्रेयस सदा से चतुर द्रोण रहा है
और प्रेमिल हृदय मासूम अभिमन्यु!

निकी पुष्कर
Pushkarniki [email protected] काव्य-संग्रह -पुष्कर विशे'श'