निराकारी उवाच – आप लोग न जाने कैसे समझदार हैं कि बेदविरुद्ध बातों को धर्म समझते हैं।

मूर्तिपूजक उत्तर देता है – हम समझदार हैं चाहे नासमझ हैं, इससे तो आपको कोई काम नहीं है पर लड़ास लगी हो तो आइए दो-दो बातें हो जाएँ पर वेद का नाम लेना बृथा है।

निराकारी – यह क्‍यों? वही तो धर्म के मूल हैं।

मूर्तिपूजक – केवल बातों ही से कि कभी किसी वेद की सूरत भी देखी है? और देखी भी हो तो उसका सिद्ध करना सात जन्‍म में भी असंभव होगा कि उनका अर्थ तुम या तुम्‍हारे साथी करते हैं वही ठीक है। यदि इस झगड़े को छेड़ोगे तो सैकड़ों का खर्च और बरसों का झाँव-झाँव होगी तिस पर भी फैसले में गड़बड़ ही रहेगी। इससे यह विषय तो पंडितों ही के लिए रहने दो, अपनी पूँजी में कुछ अक्किल हो तो उसका वाग्‍व्‍यवहार कर देखो और ‘विद्ज्ञाने’ धातु के अनुसार उसी का नाम चाहे वे वेदवाद भी रख लेना क्‍योंकि वेद में बुद्धि के विरुद्ध कोई बात नहीं लिखी।

निरा – इस बात को मानते हो?

मूर्ति – बेशक! हम निश्‍चय रखते हैं कि हमारे वेदशास्‍त्र पुराणादि में बुद्धि के विरुद्ध कुछ भी नहीं लिखा, पर पढ़ने और समझने वाला होना चाहिए। उसकी सामर्थ्‍य हर एक के लिए दाल-भात का कौर नहीं है। इसी से बिहतर होगा कि पुस्‍तकों का नाम न लेकर केवल अपनी समझ से काम लीजिए और इसकी चर्चा भी जाने दीजिए कि ‘अमुक बात को मानते हो या नहीं’ क्‍योंकि हमारे मानने, न मानने के आप इजारेदार नहीं हैं। वह हमारा और हमारे हृदयस्‍थ देव का निज संबंध है और दो व्‍यक्तियों के अंतर्गत निज संबंध में हस्‍तक्षेप करना नीचों का काम है। इससे केवल मौखिकवाद कर लीजिए, हमारे मंतव्‍यामंतव्‍य से तुम्‍हें क्‍या प्रयोजन?

निरा – अच्‍छा बाबा सो सही, पर यह तौ बतलाओगे कि वेदविरुद्ध काम करना अच्‍छा है या बुरा।

मूर्ति – जिन बातों की वेद ने आज्ञा दी है वह जितनी निभ सकें अच्‍छा ही है, पर उसके लिए भाग्‍य और दशा की आवश्‍यकता है तथा जिनका निषेध किया है उनसे बचने की सामर्थ्‍य होने पर भी न बचना निरी नालायकी है। किंतु इस विषय पर कोरी बकवाद करना पागलपन है। क्‍योंकि हम और ऐसे साधारण जीव किस बिरते पर कह सकते हैं कि सब कुछ वेदानुकूल ही करेंगे – चारों वेद सपने में भी देखे नहीं, देखे भी होते तो कोट-बूट पहिनने, साबुन लगाने, ब्राह्मण क्षत्री होकर, नौकरी के लिए मारे-मारे फिरने की आज्ञा ढूँढ निकालना संभव न था। इसीसे कहते हैं वेद-वेद न चिल्‍लाइए मतलब की बातें कीजिए।

निरा – साहब यह है व्‍यवहार की बातें, इनमें जमाने की पैरवी किए बिना गुजारा नहीं चलता, पर धर्म के काम वेद के विरुद्ध न करने चाहिए।

मूर्ति – वाह! यह एक ही कही, हजरत, जमाना आपको अपनी चाल चलने से रोक नहीं सकता। आप ही अपनी रुचि बिगाड़ डालें तो दूसरी बात है नहीं तो पगड़ी अंगरखा पहिनने वालों को कोई जमाने से निकाल नहीं देता। देशी वस्‍तु काम में लाने वाले बेइज्‍जत नहीं समझे जाते। हिंदी और संस्‍कृत सीखने वाले तथा बाप-दादों का धंधा करने वाले भूखों नहीं मर जाते। बल्कि कोई परीक्षा कर देखे तो जान जाएगा कि ऐसी चाल से अधिक सुभीता रहता है। लेकिन उनसे लाचारी है जो बाबू बनने की तल के पीछे अपनी भाषा, भोजन, भेष, भाव, भ्रातृत्‍व की रक्षा का ध्‍यान नहीं रखते, रुपया अपने हाथों परदेश में फेंकते हैं, बाप-दादों और जाति के श्रेष्‍ठ पुरुषों का उचित आदर नहीं करते बरंच उन्‍हें मूर्ख और पोप कहने तक में नहीं शरमाते। पर तुर्रा यह है कि इस करतूत पर भी बिना पढ़े वेद और धर्म के तत्‍ववेत्ता ही नहीं देश-भर के गुरु बनने पर मरे जाते हैं। इतना भी नहीं समझते कि जिस विषय का अपने को पूरा ज्ञान न हो उसमें चायँ-चायँ करना झख मारना है और अपने दोषों को न देखकर दूसरों को दोषी ठहराने की चेष्‍टा करना निरी निर्लज्‍जता है।

निरा – यह तो ठीक कहते हो, पर यह विषय व्‍यवहार का है और हम धर्म की चर्चा किया चाहते थे।

मूर्ति – व्‍यवहार और धर्म में आप भेद क्‍या समझते हैं? हमारी समझ में तो बुद्धि और बुद्धिमानों के द्वारा अनुमोदित व्‍यवहार ही का नाम धर्म है।

निरा – सच तो यों ही है, पर मोटी भाषा में व्‍यवहार उन कामों को कहते हैं जिनका संबंध केवल संसार के साथ होता है, जैसे खाना-पीना, रुजगार करना आदि, और धर्म उन कामों का नाम है जो आत्‍मा, ईश्‍वर तथा परलोक इत्‍यादि से संबंध रखते हैं जैसे संध्‍या, पूजा, दान आदि। हम इन्‍हीं के विषय में बातचीत करना चाहते हैं।

मूर्ति – यह आपकी इच्‍छा, पर क्‍या आप कह सकते हैं कि संध्‍या इत्‍यादि कर्म संसार से संबंध नहीं रखते? जबकि उपास्‍य देव ही विश्‍व के स्रष्‍टा और स्‍वामी हैं, उपासक स्‍वयं संसारी हैं, स्‍तुति प्रार्थनादि में भी सांसारिक शब्‍दों का प्रयोग, संसार संबंधिनी वस्‍तुओं एवं व्‍यक्तियों की याचनादि की जाती है तो उक्‍त कर्मों को कोई क्‍योंकर कह सकता है कि संसार से संबंध नहीं है?

निरा – तो भी ईश्‍वरीय संबंध में तो संसारी पदार्थों से बचे ही रहना चाहिए न?

मूर्ति – किस पदार्थ से बचिएगा। संसार में तो जो कुछ है सब ईश्‍वर ही का है और सबके मध्‍य वही व्‍याप्‍त है। अत: अपना सब कुछ उसी को अर्पण करना तथा उसी का प्रसाद समझना चाहिए कि उससे बचना चाहिए? और कहाँ तक बचिएगा, वचन से उसकी स्‍तुति गाइएगा तो आस्तिका ही कहाँ रहेगी और यह सब तन, मन, वचन संसारी ही हैं कि और कुछ हैं?

निरा – यह तो सभी आस्तिक करते हैं, पर हमारा मतलब यह है कि ईश्‍वर को संसारी बनाना उचित नहीं।

मूर्ति – संसारी क्‍यों बनाना उचित नहीं? पिता, माता, गुरु राजा यह सब संसारियों के विशेषण हैं और यही उनके लिए प्रयुक्‍त करने पड़ते हैं फिर उसे संसारी बनाए बिना कैसे निर्वाह हो सकता है? संसार का और उसका तो व्‍याप्‍य व्‍यापकादि संबंध ही ठहरा। अत: यदि उसे अपनी समझ तथा श्रद्धा के अनुसार किसी संसारी श्रेष्‍ठ विशेषण का विशेष्‍य ठहरा लें तो क्‍या बुराई करते हैं?

निरा – आप श्रेष्‍ठ ही विशेषण का विशेष्‍य तो नहीं बनाते बरंच उसे पाषाण धात्‍वादि का पुतला ठहराते हैं यह अनुचित नहीं तो क्‍या है?

प्रतापनारायण मिश्र
प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, 1856 - जुलाई, 1894) भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे।