वह दोनों बाँहों में गीता का, खिचड़ी बालोंवाला सिर बांधे थपथपाती रही, जैसे छोटी बच्ची को गिर जाने पर प्यार कर रही हो। और उस सात्त्विक अनुभूति की गहराई में कहीं कोई हिसाब लगता रहा—दस हज़ार का बीमा है, कम-से-कम दस-बारह हज़ार प्रोविडेंट फ़ंड होगा, पंद्रह-बीस बैंक में भी होगा ही। ख़र्चा ही क्या है दीदी का? नौकर है ही नहीं, खाना-पीना भी कोई ख़ास नहीं है। सफ़ेद कपड़े पहनती है। फिर अब वह थोड़ा-बहुत ख़ुद भी बचाएगी और एक दिन जाकर रौब से हर्ष से कहेगी—लो, ये पचास हज़ार और फ़ैक्ट्री, फ़ार्म जो भी खोलना हो, खोलो। चलो, हम लोग ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरू करें। या चलो, थोड़े-से शेयर ख़रीद लो, और किसी छोटी-सी जगह चलकर एक मकान ले लेते हैं… और उस सुख की कल्पना से नंदा की आँखें भर आयीं।

गीता समझाने लगी, “तू क्यों रोती है, पगली, मेरे दुःख से?”

सुबह उठी तो गीता को सब कुछ ऐसा लगा, जैसे सपने में हुआ था। दोनों बालकनी में आ खड़ी हुईं। दोनों केवल ब्रेसरी पहने थीं और ऊपर से साड़ियों को कसकर अपने कंधों पर चारों और लपेटे थीं। आज धुंध थी, इसलिए सागर से ज़रा ऊपर सूरज, रोशनी का गोल चकत्ता-भर दीखता था। सागर उसी तरह गरज-मचल रहा था, और कल जहाँ तक लहरें चली आयी थीं, वहाँ तक रेत धुल गई थी, और किनारों पर सूखे झागों की सफ़ेद किनारी अभी तक बनी थी। धुली रेत पर कौवों के पंजे कपड़े की सीवन की तरह इधर-से-उधर चले गए थे। एक ओर लकड़ी की डोंगी उलटी पड़ी थी।

बालकनी पर कुहनियाँ टेके ही गीता ने कंधे से साड़ी का ज़रा-सा पल्ला हटाकर, हँसकर कहा, “देख, कितने ज़ोर से काट लिया है! निशान बन गया है। उस वक़्त होश नहीं रहता?”

नंदा झेंप गई। फिर भी हँसकर दुष्टतापूर्वक होंठों में ज़रा-सी जीभ निकालकर मुँह बिराया और दूर दो मछुओं को एक डंडे पर जाल लादे ले जाते देखती रही। होटल के दरवाज़े पर खड़े एक रिक्शावाले से लम्बी टोपी और लंगोटी लगाए एकदम नंगा मछुआ बात कर रहा था। दूर वैसी ही टोपियाँ लगाए दो काले-काले मछुए एक परिवार को हाथ पकड़-पकड़कर लहरों में अंदर ले जाकर नहला रहे थे। एक साहब किनारे पर बैठे-बैठे दोनों हाथों से अपने सिर पर पानी डाल रहे थे। जब लहर आती तो वे डरकर पीछे भाग जाते थे। उसने सोचा, कभी हर्ष के साथ आएगी तो बिना मछुओं के हाथ पकड़े, हर्ष से ज़िद करेगी कि वह उसे अंदर जाकर नहलाए। तब मचलकर कहा, “चलो, दीदी, हम लोग भी नहाएँ।”

लौटकर आयी तो फिर वही दिनचर्या शुरू हो गई। हाँ, नंदा अब कभी देर से नहीं आती और दोनों नित नई जगह घूमने का प्रोग्राम बनातीं या घर पर ही कॉलेज और दफ़्तर की गप्पें लड़ातीं। वह फिर आते समय नंदा के लिए रजनीगंधा और बेले के जूड़े लाने लगी।

एक दिन नंदा ने बताया, “गीता दीदी, हर्ष आ रहे हैं परसों, यहाँ अपने दफ़्तर के किसी काम से।”

“यहाँ?”

“नहीं, होटल में ही ठहरेंगे। लिखा है कि साँझ को किसी भी दिन कोई प्रोग्राम मत रखना।” पहली बार नंदा को लग रहा था कि उसके और हर्ष के मिलने के समय पार्श्व-संगीत की तरह चाची का भय नहीं होगा। वे लोग उन्मुक्त भाव से मिल सकेंगे। यह ख़ुशामद और लाड़ से बोली, “मुझे देर हो जाया करेगी। दीदी, तुम बुरा मत मानना। क्या है, दो-चार दिनों की ही तो बात है…”

गीता ने प्यार से उसकी चिबुक उठाकर कहा, “पागल, मैं तेरी भावनाओं को नहीं जानती? लेकिन हमें मिलाएगी तो सही न?” और उदासी का एक बादल भीतर गहराने लगा।

“अरे, ज़रूर-ज़रूर!” नंदा का अंग-अंग खिला पड़ा रहा था, और प्रतीक्षा में नस-नस तड़की जा रही थी। परसों तक कैसे राह देखेगी? मन होता है, अभी से जाकर स्टेशन पर बैठ जाए!

“लेकिन देख, नंदन, रात को ज़्यादा देर मत किया करना।… हम लोग अकेली दो औरतें इस जगह रहती हैं। यों ही लोगों को हम लोगों की बड़ी चिंता है। वे इसकी ख़बर रखते हैं कि कौन आता है, कौन जाता है। फिर अब मुझसे राह नहीं देखी जाती, भाई!”

“तो तुम समझती हो कि मैं सारी रात बाहर रहूँगी? मुझे ख़ुद ही तुम्हारी चिंता रहेगी!” गीता की शृंगार-मेज़ पर नंदा प्लास्टिक के ब्रश से बाल सुलझा रही थी… होंठों में टिका क्लिप बात करने से हिलकर नीचे टपक पड़ा।

पहली बार हर्ष को गीता ने देखा था क्वालिटी रेस्टोरेंट में। उसने ही खाने पर बुलाया था।

“आप वहीं ठहरते न! नंदा, कम-से-कम हर्ष को घर पर एक बार खाना खाने तो बुलाओ!” जैसे औपचारिक बातों के बीच रेस्तराँ के उस अंधेरे-उजाले में गीता हर्ष को तौल रही थी। बाईं तरफ़ माँग निकालकर, एक्टरों की तरह बाहर की ओर निकले बाल, आधे फ़्रेमवाला चश्मा, क्रीम कलर सिल्क की कमीज़ और काली बो। काफ़ी साफ़ रंग, नाक के पास एक छोटा-सा मस्सा और कमीज़ के बटन-होल से झाँकता काले चश्मे का फ़्रेम। गीता को लगा, जैसे हर्ष अपने को सँवरा दिखाने के लिए बहुत अधिक सचेष्ट है। वह सोचने लगी कि अगर वह नंदा की उम्र में ऐसे आदमी से मिलती तो उसे पंसद करती या नहीं? अब तीस के आस-पास होगा, उस समय तो पचीस रहा होगा। यह सोचकर उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि मिस रेमंड के मुक़ाबले हर्ष भारी प्रतिद्वंद्वी है। और जब-जब वह नंदा को मुग्ध-मयूरी की तरह हर्ष के मुँह का शब्द-शब्द, हर हरकत, हर मुद्रा को आत्मसात् करते देखती तो मन का बोझ और भी भारी लगने लगता।

हर्ष बता रहा था, “इसका तो हर पत्र दीदी-ही-दीदी से भरा होता है। जब आपकी प्रशंसा करने बैठती है तो पन्नों की गिनती भूल जाती है। हमारी दीदी यों ख़याल रखती हैं, हमारी दीदी हमें यों प्यार करती हैं… हम उनके साथ यों पुरी घूमने गए थे… मैं तो जाने कब से सोच रहा था कि एक बार दीदी से मिल तो लें।”

“यह? इसकी किसी बात का विश्वास मत कर लेना, हर्ष। यह बड़ी तोताचश्म है, ऐसी निगाहें पलटती है कि बस!… लेकिन हाँ, सारे दिन बस तुम्हारा ही गाना गाती रहती है!”

पहले तो मन में आया कि मिस रेमंड वाली बात की शिकायत हर्ष से कर दे; लेकिन अपनी प्रशंसा से वह गद्गद हो आयी। उसे सचमुच ऐसा लग रहा था, जैसे वह बहुत बड़ी है और नंदा उसकी बेटी है और वह हर्ष के रूप में नंदा के भावी पति से इंटरव्यू ले रही है कि वह उसे सुखी रख सकेगा या नहीं? उसने पास बैठी नंदा को बाँहों में भींचकर कहा, “तुम्हारे पीछे तो पागल है। परसों से छत्तीस बार रोज़ मुझे साड़ियाँ और जूड़े दिखा रही है। आज जाकर तुम इसका कमरा देखो, सारी चीज़ें क़रीने से लगायी हैं, वरना ये और व्यवस्था? आज रजनीगंधा के गुच्छे भरे हैं, गुलदस्तों में!… दीदी, इस ब्लाउज़ की फ़िटिंग ज़्यादा अच्छी है या उस चाकलेटी… हर्ष को बिक्र कलर बहुत पसंद है…”

नंदा उसकी उंगलियाँ मरोड़ती रही और गीता मुस्कराकर कराहती हुई हर्ष को बताती रही। उसे हर्ष का यों धूप के चश्मे के फ़्रेम को बटन-होल में लगाना बिलकुल पसंद नहीं आया। यह क्या कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों का टेस्ट है!

नंदा सिंदूरी हो उठी थी और बार-बार सिर झटकाकर अपनी नाराज़ी ज़ाहिर कर रही थी। जब कुछ और नहीं सूझा तो काँपते हाथों से काँटा पकड़े, मेज़पोश के सफ़ेद कपड़े पर सीधी-सीधी धारियाँ बनाने लगी, “दीदी, बस, बस, प्लीज़!”

नंदा का यह झेंपता और शरमाता रूप गीता को एकदम नया लग रहा था। उसे लग रहा था कि वह नंदा नहीं है, जिसे वह इतने समय से जानती है।

एक बार निहाल होकर हर्ष ने नंदा के चेहरे को भरपूर देखा, फिर प्यार से उसके काँटेवाले हाथ पर हाथ रखकर बोला, “नहीं, दीदी, लड़की बहुत सीधी है। आपको तो पूजती है।”

गीता और नंदा की निगाहों ने मिलकर उस क्षण क्या आदान-प्रदान कर लिया, यह हर्ष को नहीं पता। वह तो अपने प्रवाह में बोलता रहा, “मैं तो यही सोच-सोचकर बहुत परेशान था कि इतनी बड़ी नई जगह में यह रहेगी कैसे? इसके बिलासपुर रहने के पक्ष में तो मैं शुरू से ही नहीं था। इसकी भी ज़िद थी और मैं भी समझता था कि इसे बाहर ही जाना चाहिए। इसकी फ़र्म की दिल्ली ब्रांच से मैंने कह-सुनकर इसकी नौकरी का इंतज़ाम तो करा दिया, लेकिन समझ में नहीं आता था कि कैसे सब करेगी यह यहाँ अकेली। दिल्ली रखना सम्भव होता तो मैं इसे एक दिन को भी बाहर जाने देता? एक दोस्त के यहाँ रहने का इंतज़ाम किया तो और तरह की उलझनें आ गईं। जवान और सुंदर लड़की को रखकर कौन बीवी अपने यहाँ ख़तरा बुलाना चाहेगी? मैं तो ख़ुद ही आने की सोच रहा था। तभी वहाँ कुंती भाभी से मुलाक़ात हो गई। वो बोलीं कि मैं जाते ही इंतज़ाम कर दूँगी। शायद उनके दिमाग़ में आपका ही ख़याल रहा होगा। तब चैन की साँस आयी।”

हर्ष इस लहजे और अधिकार से नंदा के बारे में बातें कर रहा है, जैसे पत्नी के बारे में ही बातें कर रहा हो। यानी इन लोगों में आपस में इस हद तक बात तय है। गीता के मन में आया, काश, वह पुरुष होती और नंदा के बारे में ऐसी ही संजीदगी और चिंता से बातें करती! उसने दबी-सी साँस ली।

“बस, कुंती भाभी मिल गई तो साल-भर आने का नाम ही नहीं!” नंदा शिकायत कर रही थी। ‘जवान और सुंदर लड़की’ पर वह सकुचाकर नीचे देखने लगी थी।

“ओफ़्फ़ोह! कल से तो इस क़दर समझा रहा हूँ और फिर वही… तेरा दिमाग़ है या कुत्ते की पूँछ?” हर्ष ने गीता की ओर देखकर कहा, “आप ही बताइए, दीदी, कहीं भी जाना इतना आसान है? फिर हमारे यहाँ तो एक शेरनी भी बैठी है।”

“हाँ, वही मैं तुमसे पूछना चाहती थी!” गीता ऊपर से बुज़ुर्गी और भीतर से स्थिति टटोलने के लिए पूछने लगी, “इस तरह आख़िर चलेगा कब तक? तुमने भी तो कुछ-न-कुछ सोचा ही होगा न!”

बैरा सूप की प्लेटें लगाने लगा तो हर्ष एक ओर झुककर उसके लिए जगह बनाता हुआ पूछ बैठा, “सिगरेट पी लूँ, दीदी?”

“हाँ-हाँ, पियो न!” हालाँकि उसे सिगरेट का धुआँ अच्छा नहीं लगता था।

“बस्स!” नंदा चिढ़ाकर आँखें नचाती बोली, “जब से इशारे कर-करके पूछ रहे हैं और मैं कहे जा रही हूँ कि पी लो। दीदी के सामने छिपाने में क्या है?”

पीछे सीट पर रखे कोट की जेब से सिगरेट निकाली, “नहीं, मैंने सोचा कि शायद आपको आपत्ति हो। इसने मुझे बहुत डरा दिया है कि दीदी बहुत सख़्त प्रिंसिपिल्स की प्रिंसिपल हैं। इनके कॉलेज में टीचर्स तक रेशमी साड़ियाँ पहनकर नहीं आ सकतीं; उल्टे-सीधे बाल बनाना, खुली बाँहों के ब्लाउज़, सेंट, पाउडर इस्तेमाल करने की सख़्त मुमानियत है!” और इतनी देर का मुँह में रुका धुआँ उसने होंठों की दुष्ट मुस्कराहट के साथ नंदा की ओर उड़ा दिया।

“क्या करते हैं?” नंदा हाथ से धुआँ हटाती पीछे सोफ़े की पीठ से जा टिकी। गीता ने उसकी ओर देखा, उसे लगा, नंदा बहुत ओवर एक्टिंग कर रही है। उसे उसका आँखें मटकाना, मुस्कराना और इतराना सब बहुत बनावटी लगा। हल्के अफ़सोस से बोली, “हाँ, हूँ तो सही, लेकिन इसकी वजह से वह सख़्ती चल कहाँ पाती है!”

फिर अचानक गीता सुस्त हो गई। वह किसी ग़लत चीज़ की गवाह है, किसी ग़लत बात में सहयोग दे रही है। यों ही चेहरे पर धुआँ छोड़ने की आदत ‘मास्टर साहब’ को भी थी। जितनी ही वह झुँझलाती, पापा से शिकायत करने की धमकी देती, उतनी ही दुष्ट ज़िद के साथ वे बार-बार धुआँ आँखों पर फेंकते। शायद सभी पुरुषों की यही आदत होती है।

“लो, दीदी, शुरू करो”, जब नंदा ने कंधे से उसे हिलाया तो वह चौंककर अपने में लौट आयी। गोल चम्मच से सूप का एक घूँट लेकर नमक देखा।… अब क्या नंदा भी ज़िन्दगी से चली जाएगी? उसे याद आ गया, “तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, हर्ष?”

“वही तो सोच रहा हूँ, दीदी, कि क्या जवाब दूँ।” मेज़ पर रखे हाथ की उँगलियों में सिगरेट धुआँ देती रही और हर्ष दूसरे हाथ से सूप का क्रीम चम्मच से घोलता रहा, “यह सच है, दीदी, कि मैं नंदा के बिना नहीं रह सकता। तुम्हें पता है, हम लोगों का परिचय कॉलेज के एक नाटक से हुआ था और उसमें मुझे कुछ इसी तरह के डायलॉग बोलने पड़े थे। तब शायद ख़याल भी नहीं था कि इसी नाटक के डायलॉग एक दिन ज़िन्दगी के डायलॉग हो जाएँगे। उसमें एक वाक्य था—तुम मेरी ज़िन्दगी की एक ऐसी सच्चाई, एक ऐसा हिस्सा बन गई हो, जिसे मैं अब और झुठला नहीं सकता!… लेकिन परेशानी है मेरी वाइफ़ को लेकर…अगर यह मेरी ज़िन्दगी में चार महीने पहले भी आयी होती तो हम लोगों को आप शायद किसी और रूप में देखतीं। उसे किसी दूसरी औरत के लिए कोई दया नहीं है। बारहों महीने बीमार रहती है, लेकिन बेहद ज़िद्दी है और हर पत्नी की तरह यही ठाने बैठी है कि मुझे ठीक रास्ते पर लाकर ही छोड़ेगी। उसके पूजा-पाठ, लड़ाई-झगड़े मुझे एक दिन सद्बुद्धि देंगे और मैं इसे मन से निकाल दूँगा और मेरे मन के विकार शांत हो जाएँगे। लेकिन आप बताइए, वह कैसे मन में शांति महसूस करे, जिसे पता है कि कोई उसकी राह में ज़िन्दगी के सबसे सुनहरे दिन एक-एक करके घुलाए दे रहा है? वह मुझे सारा-का-सारा अपने लिए ही रखना चाहती है और मैं अपने-आपको सारा उसे दे सकने में असमर्थ हूँ, क्योंकि मेरी आधी ज़िन्दगी यहाँ है।”

गीता ने देखा कि हर्ष के चेहरे पर दर्द उभर आया है। वह कुछ देर रुककर कह रहा था, “हर पल मैंने यही कोशिश की है कि कहीं कोई रास्ता निकाल लूँ, वह मेरी तकलीफ़ न समझे तो शायद उसे इसी पर दया आ जाए। सच कहता हूँ आपसे, दीदी, इन दिनों बहुत ईमानदारी से उसे अपने-आपको सारा दे देने की कोशिश की है, जो कुछ उसने कहा है, किया है, लेकिन लगता है, वह दुहरी ज़िन्दगी अब मुझसे चलेगी नहीं। उसने भी देख लिया है कि वह मुझे सारा नहीं पा सकती! तो अब उसे सारा छोड़ना होगा—शी विल हैव टु लूज़ मी होल। बस, यही राह देख रहा हूँ कि कौन-सा ऐसा तरीक़ा हो सकता है कि मैं उससे अपने-आपको वापस देकर नंदा को सौंप दूँ। मैं तो मना रहा हूँ कि उसकी बीमारी ही…”

तभी बैरा आ गया। गीता ने हर्ष की अगली बात की राह देखी, लेकिन भीतर हल्का-सा क्रूर संतोष हुआ—हर्ष की बातों में हर ग़ैर-ईमानदार आदमी की शब्दावली और लहजा है… अभी नंदा को उससे कोई नहीं ले जाएगा, वह गीता के पास ही रहेगी।

नंदा हर्ष के चेहरे को मुग्ध देखती रही और सोचती रही कि हर्ष राह देख रहा है कि अपने को सम्पूर्ण वापस लेकर उसके पास आ जाएगा और वह सोचती है कि गीता के सम्पूर्ण को पाकर… वह बेमालूम-सी मुस्करायी।

गीता ने हँसकर बात को बहुत हल्का स्तर दे दिया, “कहीं इसके लिए भी आगे जाकर यही मत मानने लगना!”

तीनों धीरे से हँसे और इसी तरह की दो-एक बातों के बाद बातें फिर हँसी-परिहास पर आ गईं, और हर्ष अपने उस नाटक की घटना सुनाने लगा, जिसमें नायिका की किसी बात का बुरा मानकर नायक उसे भला-बुरा कहने लगता है, उसके वर्ग और वंश की शान में भी कुछ ऐसा कहता है कि नायिका चाँटा मार देती है। हर्ष हँसकर बताने लगा, “दीदी, इसने ऐसे ज़ोर से तमाचा मारा कि मेरा तो सिर भन्ना गया। बाद में जब शिकायत की तो बोलती है कि पीछे के दर्शकों को कैसे सुनायी देता?”

जब बाहर हर्ष आगे जाकर पान बनवाने लगा तो नंदा ने पास आकर बहुत डरते-डरते कहा, “दीदी, हर्ष कहते हैं कि मैं पीछे आ जाऊँ। उन्हें मुझसे बातें करनी हैं।”

“बातें तो ठीक हैं, लेकिन इन्हें एक बार अपने यहाँ भी तो बुलाओ!” गीता उसके ब्लाउज़ की बाँह के एक छूटे हुए डोरे को खींचकर तोड़ती हुई समझदारी से मुस्करायी। पान लाते हुए हर्ष ने उसकी बात सुन ली थी, “वो मैं ख़ुद आ जाऊँगा। जब तक मिला नहीं था, तभी तक की बात थी।”

सामने से जाती टैक्सी को हाथ उठाकर नंदा ने रोक लिया, और तत्परता से बोली, “दीदी, तुम्हें अकेले जाते हुए डर तो नहीं लगेगा?”

“हाँ, लगेगा तो, तू चल छोड़ने?” गीता ने हर्ष के हाथ से लेकर दो पान मुँह में रखे और उलाहने से नंदा को देखा तो हर्ष ने पूछा, “चलो, छोड़ आते हैं दीदी को, क्या है!”

“अरे, नहीं-नहीं! मैं तो नंदा से कह रही थी। बहुत हमदर्दी दिखा रही थी न!” फिर टैक्सी की ओर बढ़ते हुए कहा, “यहाँ रोज़ अकेले ही तो जाना पड़ता है!” उसके स्वर में शिकायत नहीं थी। अचानक ही वह बहुत उदार और प्रसन्न हो आयी थी। हर्ष टैक्सी का फाटक खोले खड़ा था।

“नंदा को कुछ देर हो जाए तो माइंड मत करना, दीदी”, उसने दरवाज़ा बंद करके धीरे से कहा।

“लेकिन उससे अकेले नहीं आया जाएगा। उसे पहुँचाकर आना।” बंद दरवाज़े का शीशा उतारते हुए उसने हर्ष की ओर देखा, तो उसकी आँखों में अनचाहे ही एक परिहास चमक आया, “पौने दस बजे हैं… घंटे-भर से ज़्यादा देर नहीं… और, सुनो, नो बेवक़ूफ़ी!”

तब टैक्सी झटके से चल पड़ी। पहले सोचा, जाने सरदार जी ने क्या समझा होगा। फिर ख़याल आया कि सारी बातें इतने सांकेतिक ढंग से हो रही थीं कि कुछ भी समझ में नहीं आया होगा। वह रास्ते-भर रेस्तराँ की बातों पर मुस्कराती रही।

उस रात हर कार का हॉर्न, हर घर्राटा उसे टैक्सी जैसा लगता और हर आहट चप्पलों और जूतों की आवाज़। वह रात-भर करवटें बदलती रही, पहरेदार लाठी से फ़र्श ठोंक-ठोंककर चक्कर लगाता रहा, स्टेशन की सीटी और लेट तथा अर्ली चलने वाली ट्रामों और बसों का शोर उसकी बेचैनी बढ़ाता रहा और दोनों में से कोई नहीं आया। रेस्तराँ का परिहास-भरा वातावरण और मन की उदारता शीघ्र ही समाप्त हो गई और प्रतीक्षा का तनाव अब झुँझलाहट बन गया। बार-बार मन में आता था कि उसी दिन की तरह जाए और झोंटा पकड़कर घसीट लाए उस कुतिया को! यार से चिपकी पड़ी होगी!… झूठा, धोखेबाज़ आदमी! आएगी तो रोती हुई मेरे ही पास। तब कहूँगी, यहाँ जगह नहीं है! लेकिन इस बार उसे खींचकर लाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। हर्ष और रेमंड में फ़र्क़ है। हर्ष के सामने नंदा को दाँव पर लगाएगी तो हो सकता है, हार जाना पड़े।… सारी रात मुँह पर तकिया रखे, नीचे वह और ऊपर बत्ती, दोनों जलती रहीं और सुबह वह इसी निर्णय पर पहुँची कि हर्ष की पत्नी की तरह सारे को पाने की ज़िद में हो सकता है, एक दिन उसे सारे से ही हाथ धोना पड़े। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि ग़म खा जाए और थोड़ी-सी छूट दे दे और हर्ष ज़िन्दगी-भर तो यहाँ रहेगा नहीं—चार दिन, छह दिन… दो हफ़्ते। फिर उसके भी तो बाल-बच्चे हैं, नौकरी है। कुछ हो, हर्ष पुरुष है और उससे जुआ नहीं खेला जा सकता… नहीं खेलना चाहिए।

अगले दिन, सारे कॉलेज-टाइम में उससे कुछ भी नहीं किया गया और सिर-दर्द का बहाना करके वह माथा पकड़े सोचती रही, और जब रह पाना असम्भव हो गया तो रात को जाकर प्यार-दुलार से नंदा और हर्ष की ख़ुशामद करके दोनों को अपने यहाँ ही ले आयी। वह दोनों की स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं पहुँचाएगी। ग़ुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि इस मतलबी लड़की का सिर दीवार से दे मारे। कैसी जल्दी वह अपने सारे वायदे-वचन भूल जाती है! जाकर होटल में रहने लगी, जैसे सदा से यहीं रहती हो और यहीं रहना है। और गीता देखती कि कैसी तन्मयता से नंदा ग़ुसलख़ाने में हर्ष के कपड़े धोती है, कमीज़-बुश्शर्ट प्रेस करती है; या अंदर से राखदानी लाकर कूड़े के टीन में सिगरेट के टुकड़े और राख झाड़ती है, तो ऐसी ज़िम्मेदारी और व्यस्तता का भाव मुँह पर रहता है, मानो वह वर्षों से उसकी पत्नी की ज़िम्मेदारी निभाती चली आ रही है। कभी उसके कपड़ों पर तो नंदा ने यों अपनी ओर से इस्तिरी नहीं की, उसके तो सिर में तेल भी लगाना होता है तो ऐसा भाव दिखाती है, जैसे जाने कहाँ की बेगार करनी पड़ रही हो।… उल्टे गीता ही है, जो नहाने जाती है तो उसके छोटे-मोटे कपड़े धो लाती है, अपने कपड़ों के साथ उसके कपड़े तहकर रख देती है, धोबी का हिसाब रखती है…

भौं-भौं-भौं! इस बार बोस बाबू का कुत्ता भूँका तो गीता झटके से जाग्रतावस्था में लौट आयी। उसे ख़याल ही नहीं आया कि कब वह कुर्सी से उठकर बिस्तरे पर आ लेटी थी, चश्मा सिरहाने रख लिया था और जाने कब तकिया उसके मुँह पर आ गया था। उसने तकिया फिर अपनी जगह रखा और टटोलकर चश्मा उठाया और कुहनियों के बल आधी उठी ही उत्सुक हो आयी कि नीचे का लेच खड़के और वह झटपट खाने की मेज़ पर पहुँच जाए, ताकि लगे कि वह पढ़ने में व्यस्त थी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह नीचे की चटखनी लगा आयी हो। नहीं खुलेगा तो अपने-आप ही घंटी बजाएँगे और कुहनियों के बल उठी हुई वह यों ही अधर में लटकी-सी कान नीचे लगाए, गर्दन मोड़े शीशे में देखती रही। एक क्षण एक भ्रम-सा उसके मन में आया कि यह कुहनियों के बल उठकर उसे ग़ौर से देखती, शीशे के अंदर लेटी गीता असली है या यह बाहर चारपाई पर पड़ी? और अपना यह भ्रम उसे बिजली के झटके की तरह ऊपर से नीचे तक ऐसा आक्रांत कर गया कि पल-भर के लिए वह इस बत्तियों जलते अकेले फ़्लैट में घबरा-सी उठी—शायद… शायद दरवाज़ा खुलने की आहट में यों आधी उठी, शीशे से झाँकती गीता ही असली है… परछाईं तो यह है, जो बाहर लेटी है…

इस्मत चुग़ताई की कहानी 'लिहाफ़'

Book by Rajendra Yadav:

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राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 आगरा – मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013 दिल्ली) हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक होने के साथ-साथ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया।