याद हैं तुम्हें बाग़ में बिताया वह दिन
जब जान गए थे तुम
कच्चे आँवले से मेरा मोह
और अगले ही पल तुम चढ़ गए थे
पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर,
झटककर तोड़ लिए थे कुछ सुनहरे फल,
झोली बनी मेरी फ़्रॉक में डालते वक़्त
तुम्हारी आँखों में उतर आयी थी सुनहरी चमक
आँवले की एक फाँक खाकर
मैंने पिया था पानी
और उछाह से कहा था तुमसे-
“आँवला खा के पानी पियो, शरबत-सा मीठा लगता है”
तुमने धीरे से ले लिया था मेरा जूठा आँवला
और झट रख लिया था मुँह में
तब तुमने कहा था… “सुनो!
आँवला तो यूँ भी मीठा है”
पलटकर देखती हूँ बीते समय की ओर
तब महसूस करती हूँ
वह मिठास फल की नहीं
अव्यक्त भावनाओं की थी
आज भी जब होती हूँ केवल ‘अपने’ साथ
स्मृतियों की टोकरी से निकाल लेती हूँ
वही अधखाया आँवला
और चख लेती हूँ अपनी ही नज़रों से बचकर,
जीभ सहेज लेती है वही स्वाद
एक परछाईं बढ़ा देती है खुली हथेली
जिस पर रख देती हूँ वर्षों से सहेजे
सकुचाये हुए से एहसास।
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