23 मार्च! शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की शहादत की तिथि। यह गज़ब का इत्तेफ़ाक़ है कि शहादत की यही तारीख़ उसकी भी है, जिसने भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचारों को कविता की शक्ल दी। कवि अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’ के भगत सिंह से इतने संयोग मिलते हैं कि भगत सिंह और अवतार सिंह बस ‘पेन एण्ड पिस्टल’ तथा आज़ादी के पूर्व और उपरान्त भर के ही कुछ गिने-चुने अन्तरों पर खड़े नज़र आते हैं।
दोनों का राब्ता पंजाब से था, दोनों यूथ आइकॉन के रूप में देखे जाते हैं, व्यवस्था के प्रति आक्रोश दोनों में है और कई सारे आदि-इत्यादियों के अलावा मुख्य बात यह कि देश से बेपनाह जुनूनी व् जज़्बाती मोहब्बत दोनों की रग-रग में है। एक मजमून देखें –
भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द,
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।
पाश की सरफ़रोशी की एक मिसाल और देखिए-
हाँ, मैं भारत हूँ, चुभता हुआ
उसकी आँखों में
अगर उसका कोई ख़ानदानी भारत है
तो मेरा नाम उससे ख़ारिज कर दो।
दुनिया के कुछ गिने-चुने ही कवि हुए हैं, जिनकी कविताएँ किताबों के पन्नों से उठकर लोगों की ज़ुबाँ पर जम गईं और उसका स्वाद इतना तेज़ाबी लगा कि उसने नारे की शक्ल अख़्तियार कर ली। पाश वही कवि हैं, जिनकी कविताएँ उनके होने के दौर से लेकर हाल-फ़िलहाल हुए छात्र आन्दोलनों तक में नारे के रूप में बड़े आक्रोश और अधिकार के साथ गायी और सुनायी जाती रहीं, जिन्होंने आन्दोलनों की हवा को बारूदी बना दिया और सबका मन इन कविता-कम-नारों की गूँज से मचल उठा। वह चाहे ‘हम लड़ेंगे साथी’ हो या ‘मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा, मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा’, पाश की ये काव्य-पंक्तियाँ अब आन्दोलनों का एक ज़रूरी नारा बन गई हैं।
आज जबकि किसी भी विचारधारा से जुड़कर उसके ग़लत-सही सभी आग्रहों और मान्यताओं को स्वीकार करने एवं पार्टी लाइन जैसे दायरे का ख़याल रखते हुए उसके हिसाब से एडजस्ट करने का चलन सामान्य हो गया है, पाश ऐसी किसी भी थोथी मर्यादा या लिमिट का हमेशा अतिक्रमण करते हैं। वे घोषित तौर पर मार्क्सवादी कवि हैं, यहाँ तक कि बंगाल के नक्सलवाड़ी आन्दोलन में उन्होंने खुलकर भाग भी लिया था। लेकिन जहाँ कहीं भी इस विचारधारा की कमियाँ उन्हें दिखीं, पाश ने उसपर पैबन्द लगाकर ढकने या छिपाने के बजाय पूरी तरह से उधेड़ करके रख दिया है।
पाश, भगत सिंह के विचारों से पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ रखते थे। अपनी एक कविता में तो उन्होंने भगत सिंह को पंजाब का पहला ऐसा शख़्स माना है, जिसने इस क्षेत्र को पहले-पहल बुद्धिवाद की दिशा दी। वास्तव में भगत सिंह के दौर और संधू के वक़्त में इतना ही फ़र्क़ था कि सत्ता साम्राज्यवादी ताक़तों के हाथ से भारतीयों के हाथ में आ तो गई थी, लेकिन जैसा कि भगत सिंह को आशंका थी वह सत्ता मज़दूरों-किसानों से परे राजनीतिक जंजालों में उलझकर रह गई थी। सत्तर के दशक में जब आज़ादी के सपनीले आदर्शों के प्रति मोहभंग होता है, तो संधू भगत सिंह के उस बिल्कुल आख़िरी क्षण को याद करते हैं-
जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठारी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था,
पंजाब की जवानी को
उसके आख़िरी दिन से
उस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे।
यानी भगत सिंह के अधूरे सपनों को पूरा करने की उम्मीद, सत्ता को मेहनतकश लोगों के हाथ तक पहुँचाने का आह्वान वे पंजाब के जवानों से करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से तत्कालीन पंजाब एक अलग ही क़िस्म की आग में झुलस रहा था। पंजाब में उस समय अलगाववादी ख़ालिस्तानी आन्दोलन अपने चरम पर था। भगत सिंह के आख़िरी मुड़े हुए पन्ने के सन्देश से दूर पंजाब की नौजवानी विखण्डनकारी शोलों से आत्मघाती खेल खेल रही थी। संधू ने इसका हर स्तर पर विरोध किया।
पाश एक तरफ़ तत्कालीन सरकार से लड़ रहे थे, तो दूसरी तरफ़ जिनसे व्यवस्था-बदलाव की उम्मीदें की जा सकती थीं, उन बहक चुके युवाओं से भी जो अब चरमपंथी अलगाववादी थे। यह लड़ाई दोहरी थी, दुई पाटन के बीच में पिस जाने जैसी। लेकिन पाश ने हारना नहीं स्वीकारा। क्योंकि उनके लिए तत्कालिक हार या जीत से अधिक महत्त्वपूर्ण था जीत की उम्मीद का बने रहना। तभी तो अपनी इस सबसे चर्चित कविता में उन्होंने जैसे अपने जीवन की समूची बौद्धिक थाती को शब्द दे दिया है-
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती,
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती,
गद्दारी और लोभ की मुठ्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
सबसे ख़तरनाक होता है…
हमारे सपनों का मर जाना।
जाने-माने आलोचक नामवर सिंह ने पाश की समानता स्पेन के कवि लोर्का से की है, जिसे वहाँ की सरकारी व्यवस्था ने मरवा डाला था। क्योंकि उसकी कविताओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश था। लेकिन पाश न केवल आक्रोश बल्कि प्रेम और उम्मीद के भी कवि हैं। वास्तव में इन्हीं भावात्मक तत्वों से ही तो मिलकर जुनून बनता है। और इस तरह पाश ऐसे जुनूनी कवि हैं, जो अपनी कविताओं की वजह से ही मारे गए।
तारीख़ 23 मार्च 1988 को 37 साल की उम्र में पाश, ताज़िन्दगी जिन अलगाववादियों से लोहा लेते रहे थे, उनके हाथों मारे गए। यह भी एक इत्तेफ़ाक़ है कि 23 मार्च शीर्षक से पाश की एक कविता भी है, जिसमें वह भगत सिंह की शहादत को जज़्बातों से लबालब होकर याद करते हैं। लेकिन अब उसे पढ़ने पर लगता है कि जैसे पाश ने यह कविता ख़ुद की शहादत के लिए ही लिखी थी-
शहीद होने की घड़ी में
वह अकेला था
ईश्वर की तरह,
लेकिन ईश्वर की तरह
वह निस्तेज न था।