सुनीता डागा की कविता ‘रोज़ खुलती नयी राह’ | ‘Roz Khulti Nayi Raah’, a poem by Sunita Daga
तुम चाहते हो कि
रोज़ एक कविता लिखूँ तुम पर मैं
उन पंक्तियों में बजाय मुझे ढूँढने के
तुम सहलाते हो अपने अंह को
बड़ी सहजता से
आहट मिल जाती है तुम्हें कि
कितना रोयी हूँ मैं रात-भर
तुम्हारी याद को ओढ़कर
गुज़ार दी है मैंने सारी रात
अकेलेपन से लड़ी हूँ
कई-कई बार
नहीं माँगती है मेरी कविता
तुमसे कोई जवाब
सारे उत्तरदायित्वों से तुम्हें दूर रखकर
चुपचाप सिमटी हुई होती है
कितने सुरक्षित होते हो तुम
मुस्कुराहट से भरकर
इस कविता को परे रखते हो तुम
तैयार रहते हो नयी कविता के इंतज़ार में
नहीं जानते हो तुम
तुमसे शुरू हुई मेरी हर कविता
अन्त में ख़त्म होकर
एक नयी राह बनाती है मेरे ही लिए
हर दूसरा दिन
तुम्हारे लिए एक नयी कविता
मेरे लिए रोज़ खुलती
कोई नयी राह!
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