ये बात तो तय है कि ग़ालिब ख़ुद चाहे क़र्ज़ और ग़रीबी की ज़िन्दगी गुज़ारकर मरा हो, मगर उसने अपने मरने के बाद बहुत से लोगों को अमीर क्या बल्कि रईस बना दिया। इस सिलसिले का एक क़िस्सा ग़ालिब सदी के वक़्त पेश आया (यानी 1969 में, जब ग़ालिब के देहान्त को सौ साल पूरे हुए)।
हुआ यूँ कि एक साहब थे तौफ़ीक़ अहमद क़ादरी, जो अमरोहा के रहने वाले थे और शहरों-शहरों घूमकर पुरानी और नायाब किताबें ढूँढकर लोगों को मनमानी क़ीमतों पर वो किताबें बेचा करते थे। अब हुआ ये कि ग़ालिब सदी के आसपास, उन्हें किसी ऐसी ही किताबें बेचने वाले ने एक किताब दी और कहा, “लो मियाँ! तुम भी क्या याद करोगे, ग़ालिब के हाथ का लिखा हुआ दीवान दे रहा हूँ, मगर इसके पूरे पच्चीस रुपये लूँगा।”
तौफ़ीक़ साहब ने किसी तरह मोल भाव करके उससे वो किताब ग्यारह रुपये में ख़रीद ली। वो ख़ुशी-ख़ुशी अमरोहा लौटे और वहाँ पहुँचकर अख़बार में इक इश्तिहार छपवाया कि मेरे पास ग़ालिब के हाथ का लिखा हुआ नुस्ख़ा-ए-दीवान-ग़ालिब है, जो कि मैं छः हज़ार रुपये की क़ीमत पर बेच सकता हूँ। ग़ालिब अकैडमी ने इस बात का नोटिस इसलिए नहीं लिया क्यूंकि उसे लगा कि ग़ालिब-सदी के मौक़े पर कोई हवाई उड़ाकर पैसे कमाना चाहता है। लेकिन उस ज़माने के मशहूर अदीब निसार अहमद फ़ारूक़ी ने उन साहब को ख़त लिखकर दिल्ली बुलवाया और वो नुस्ख़ा अपनी आँखों से देखा। इत्तिफ़ाक़ से उसी ज़माने में स्टेट आर्काइव, इलाहाबाद के एक साहब, जो कि निसार साहब के दोस्त थे, उन्होंने भी वो दीवान देखा और ये माना कि ये ग़ालिब के हाथ का ही लिखा हुआ दीवान है, मालिक राम (जो कि अपने ज़माने की माहिरीन ए ग़ालिब) में से एक थे, इस दीवान को दस हज़ार की क़ीमत पर ख़रीदने के लिए तैयार हो गए, मगर अब तौफ़ीक़ अहमद क़ादरी समझ चुके थे कि उनके हाथ इस बार बहुत नादिर ओ नायब चीज़ लगी है, इसलिए उन्होंने कह दिया कि इस दीवान में एक सौ छब्बीस सफ़हात हैं और अब इसका एक सफ़हा एक हज़ार का है, जिसके लिहाज़ से किताब की क़ीमत एक लाख छब्बीस हज़ार होती है। मालिक राम ने कहा कि भाई! मैं तो इतनी क़ीमत में ये किताब नहीं ख़रीद सकता, हालाँकि ये इतने पर भी सस्ती है, लेकिन आप ऐसा कीजिए कि रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में जाकर इम्तियाज़ अली खाँ अर्शी के बेटे अर्शी ज़ादा से मिल लीजिए, शायद वही कुछ कर सकें।
तौफ़ीक़ साहब वहाँ पहुँचे, तब तक इस दीवान की शोहरत हो चुकी थी, उर्दू, अंग्रेज़ी अख़बारों में इसके बारे में ख़बरें छप चुकी थीं। बहर-हाल, अर्शी ज़ादा ने दीवान को देखा और इस शर्त पर उसे ख़रीद लिया कि इस दीवान के सारे कॉपीराइट उनके नाम कर दिए जाएँगे। तौफ़ीक़ क़ादरी ने ये काम ख़ुशी से कर दिया। उन्हें सवा लाख रुपये मिल गए और दीवान ए ग़ालिब का एक ऐसा नुस्ख़ा अर्शी ज़ादा के हाशियों के साथ छापकर दुनिया के सामने आया, जो कि ग़ालिब ने छब्बीस साल की उम्र में अपने हाथ से लिखा था, और उस ज़माने में इस दीवान ए ग़ालिब की क़ीमत एक सौ पचास रुपये रखी गयी थी।
इसी बीच तौफ़ीक़ क़ादरी और किसी दूसरे शख़्स को ये ख़बर नहीं थी कि निसार अहमद फ़ारूक़ी ने चुपके से इस नुस्ख़े की एक कॉपी करा ली थी, और उनका एडिट किया हुआ दीवान ए ग़ालिब का वो नुस्ख़ा, जो कि नुस्ख़ा-ए-लाहौर कहलाया, मुहम्मद तुफैल के रिसाले ‘नक़ूश’ में ग़ालिब नम्बर-२ के तौर पर पब्लिश हुआ और हाथों हाथ बिका। और इस तरह ग़ालिब सदी के मौक़े पर इस दीवान की खोज वाक़ई एक अजीब लेकिन दिलचस्प और कई लोगों के लिए फ़ायदेमन्द बात साबित हुई।