सुमित्रानन्दन पन्त का लेख ‘ग़ालिब’ | ‘Ghalib’, an article by Sumitranandan Pant

 

कोई भी महान साहित्यकार या कवि किसी विशेष भाषा या किसी विशेष देश-काल की परिधि में सीमित नहीं रह सकता। उसका कृतित्व सार्वभौम होता है और उसकी सृजन-चेतना भाषा के तटों को लाँघकर, रसातिरेक की बाढ़ में, समस्त मानवता के हृदय को आप्लावित करने की शक्ति रखती है। शेक्सपियर और कालिदास की तरह ग़ालिब का स्थान भी संसार के इसी प्रकार के उच्च कोटि के कवियों में सुरक्षित है, जिनकी रचनाओं की प्रत्येक पंक्ति विभिन्न अवसरों तथा परिस्थितियों में नित्य नये अर्थों को प्रकट करने की क्षमता रखती है। प्रत्येक पीढ़ी का काव्य-प्रेमी पाठक उनकी रचनाओं में अपनी बौद्धिक योग्यता तथा भाव-प्रवणता के अनुरूप नये गुण, नया आस्वाद तथा नये चमत्कार खोज निकालता है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब सर्जक या रचनाकार थोथे तथा खोखले शब्दाडम्बर से ऊपर उठकर, शब्द तथा अर्थ के मर्म में पैठने की क्षमता रखता हो और वह अपने युगप्रबुद्ध मन की अंगुलियों के स्पर्शों से काव्य-तन्त्री में मानव-आत्मा के स्वर को उसी प्रकार जगाने की सामर्थ्य रखता हो जिस प्रकार वीणाकार अपनी साधना में तन्मय वीणा के तारों से अश्रुत सम्मोहक संगीत की सष्टि कर सकता है।

ग़ालिब उर्दू भाषा के अत्यंत लोकप्रिय कवियों में एक हैं। इन्हें इक़बाल ने जर्मन कवि गेटे का समकक्ष माना है। इधर सौ वर्षों में ग़ालिब की ओर काव्य-प्रेमियों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ है, दीवान-ए-ग़ालिब के अनेक छोटे-बड़े संस्करण निकल चुके हैं। और हिन्दी-काव्यप्रेमियों ने भी उनकी रचनाओं का बड़े चाव से रसास्वादन कर उनके महान् कृतित्व के प्रति अपनी श्रद्धा के पुष्प समर्पित किए हैं एवं उनका गम्भीर अध्ययन-मनन तथा विश्लेषण किया है।

ग़ालिब का जन्म आगरा में सन् 1797 में हुआ था और उनकी मृत्यु दिल्ली में सन् 1869 में हुई। उनका नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ था, और कवि नाम ‘असद’ और ‘ग़ालिब’। वे ऐबक तुर्क वंश के थे और इस ख़ानदान ने उन्हें चौड़ी हड्डियाँ, लम्बा क़द, सुडौल इकहरा शरीर, भरे-भरे हाथ-पाँव, घनी लम्बी पलकें, बड़ी-बड़ी बादामी आँखें और सुर्ख़-ओ-सफ़ेद रंग दिया था जो सुरापान के कारण पीछे चम्पई हो गया था। ग़ालिब का स्वभाव ईरानी, शिक्षा-दीक्षा और संस्कार हिन्दुस्तानी थे और भाषा उर्दू। उनका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था, उनमें जन्मजात काव्य-प्रतिभा थी, वे कुशाग्र बुद्धि तथा स्वतन्त्र विचार के शिष्ट व्यक्ति थे। शेर कहना उन्होंने छुटपन से ही शुरू कर दिया था और प्रायः तीस वर्ष की आयु में ही वे दिल्ली से कलकत्ता तक कीर्ति तथा प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। उनकी शिक्षा जैसी भी रही हो पर मानव-जीवन का अध्ययन उनका निःसन्देह अत्यन्त गहन तथा व्यापक रहा है। वे सहस्रों व्यक्तियों के सम्पर्क में आ चुके थे और मनुष्य-स्वभाव के हर पहलू की जानकारी रखते थे।

उन्होंने स्वयं कहा है, “मैं मानव नहीं, मानव-पारखी हूँ।”

क्या बादशाह, क्या धनी, क्या मधु-विक्रेता, क्या पण्डित, क्या अंग्रेज़ अधिकारी—उनके असंख्य निजी दोस्त थे, जिनमें घुल-मिलकर उन्होंने मनुष्य-स्वभाव का गहरा ज्ञान प्राप्त किया था।

युवावस्था में वे संगीत, नृत्य तथा मधु के प्रेमी एवं सौन्दर्योपासक थे। उन्होंने न कभी नमाज़ पढ़ी, न रोज़ा रखा और न शराब ही छोड़ी। धर्म के बाहरी विधि-विधान के प्रति विरक्त होने पर भी वे पूर्ण रूप से आस्तिक थे और ख़ुदा, रसूल तथा इस्लाम पर उन्हें अनन्य विश्वास था। यौवन के भावावेगों तथा आमोद-प्रमोद के प्रति विरक्त होने के बाद उन्होंने सूफ़ियों का-सा स्वतन्त्र जीवन-दर्शन तथा आचार-विचार अपनाया और सभी धर्मों के प्रति समभाव तथा हिन्दू, मुसलमान एवं ईसाई सबके साथ समान व्यवहार रखा।

कुछ घटनाओं तथा परिस्थितियों ने ग़ालिब के जीवन को गम्भीर रूप से प्रभावित किया है जिनमें मुख्य हैं—उनका बचपन में अनाथ हो जाना, उनका दिल्ली का निवास तथा कलकत्ता की यात्रा। इनका प्रभाव उनके व्यक्तित्व ही नहीं, उनके कृतित्व में भी पाया जाता है। वे पाँच वर्ष की आयु में ही पिता के वात्सल्य से वंचित हो चुके थे जिससे उनकी शिक्षा-दीक्षा का उपयुक्त प्रबन्ध नहीं हो सका था। वे मात्र अपनी जन्मजात प्रतिभा तथा स्वभावगत संस्कारों के बल पर ही अपने लिए रास्ता बनाकर आगे बढ़ सके। संघर्ष उनके जीवन का मुख्य अंग रहा। जिस धीरज, साहस और दार्शनिक-तटस्थता के साथ वे जीवन-भर निर्धनता से संघर्ष करते रहे, उससे व्याकुल तथा उद्विग्न होते रहे, उसने भी उनके कृतित्व पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। जीवन की कड़वाहट को पीकर वे उर्दू काव्य में हृदय की जो भाव-मधुरिमा उँडेल सके, परिस्थितियों के मरुस्थल से जिस करुणाद्रवित सौन्दर्य-रस की धारा ग्रहण कर उर्दू-साहित्य-वारिधि को लबालब भर सके, वह केवल एक महान् तथा उच्चकोटि की प्रतिभा से ही सम्भव हो सकता है, जिसने अपनी मर्मस्पर्शी अन्तर्भेदिनी दृष्टि से जीवन के ऊँच-नीच तथा सुख-दुःख के द्वन्द्वों को अतिक्रम कर उसका रहस्य समझ लिया हो। यही रहस्य-बोध, अवसाद-मिश्रित हर्ष उनके काव्य का सर्वोपरि गुण है जो मनुष्य को एक अतीन्द्रिय कल्पना-लोक में उठा देता है।

उन्होंने एक जगह अपने पत्रों में लिखा भी है कि निर्धन तथा अभावग्रस्त मन का आधार केवल कल्पना है, जो उसके भीतर एक नये संसार का निर्माण कर उसे जीवित रहने के लिए शक्ति प्रदान करती है।

ग़ालिब के कृतित्व में किसी व्यवस्थित दर्शन-विशेष को खोजना व्यर्थ है—पर उसमें उनके गहरे चिन्तन तथा जीवन के सुख-दुःख के द्वन्द्वों तथा प्रेम के प्रति अन्तःस्पर्शी दार्शनिक दृष्टि की छाप मिलती है। सामान्यतः वे एक प्रकार के सर्वात्मवाद में विश्वास करते प्रतीत होते हैं। वे विश्व को आईनः-ए-आगही अर्थात् चेतना का दर्पण मानते थे। न केवल मानव जिस दिशा को मुँह करता है, ‘वह ही वह’ नज़र नहीं आता, बल्कि उसका मुँह भी ख़ुद उसी का मुँह है। इस प्रकार वे एक प्रकार के अद्वैतवाद में विश्वास करते प्रतीत होते हैं। इस दृष्टिकोण ने उनके काव्य में एक आशावाद को भी जन्म दिया है। ‘बिना दुःख के रे सुख निःसार’ वाली भावना उनमें जगह-जगह मिलती है। दुःख और सन्ताप को वे आनन्द की नवीन रूप से अनुभूति के लिए आवश्यक समझते थे। स्वयं मृत्यु जीवन को अभिनव आनन्द प्रदान करती है, उसे नवीन जन्म देकर। संसार की कठिनाइयाँ मनुष्य के पौरुष को जगाने के लिए, उसकी भावना की तलवार को सान पर चढ़ाने के लिए अनिवार्य रूप से सहायक होती हैं।

यही कारण है कि ग़ालिब का ग़म इतना मोहक है, उसमें हर्ष का उत्फुल्ल स्पर्श मिला हुआ है। उनकी शायरी में दुःख और हर्ष को पृथक करना असम्भव है। वे निःसन्देह ग़म की ख़ुशी के शायर हैं।

वे अत्यन्त विपन्न परिस्थितियों में भी जी खोलकर हँस सकते थे। उनके अनगिनत चुटकुले और पत्र इसके साक्षी हैं। भूख, मौत, अपमान—इन सभी का सामना उन्होंने साहस तथा पौरुष के साथ, व्यंग्यपूर्ण कटु हास्य के साथ किया है। उनका दर्द अपनी सीमा पार कर स्वयं दवा बन जाता है। वे हृदय की इतनी गहराई से ग़ज़लों को लिखते थे कि उनकी प्रत्येक उक्ति मन के परदों में बिजली की तरह कौंध उठती है। उनमें कहीं मदिरा से भी मादक एक ऐसा नशा रहता है जो सुननेवाले को मस्त तथा मदहोश बना देता है। निःसन्देह गालिब की ग़ज़लें गीतात्मकता की पराकाष्ठा हैं। उनकी गतिशील कल्पना या इमेजरी चित्रात्मकता की अद्भुत निदर्शन है। उनकी अछूती उपमाओं तथा अनुपम रूपकों के जादू से प्रत्येक अक्षर नत्य करने लगता है। शब्द अपनी कूपवृत्ति लाँघकर भव-सागर के अतल विस्तार में डूब जाते हैं। उन्होंने ठीक ही कहा है—

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और

निःसन्देह ग़ालिब की तुलना और किसी से नहीं की जा सकती। वे अपनी उपमा आप हैं। ऐसे महान् स्रष्टा तथा जीवन-द्रष्टा मनुष्य के हृदय को वशीभूत करने की शक्ति रखते हैं। अपने इन्हीं अतुलनीय गुणों के कारण ग़ालिब मुझे प्रिय हैं।

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सुमित्रानन्दन पन्त
सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900 - 28 दिसम्बर 1977) हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।