यह कविता यहाँ सुनें:
प्रेम को परिभाषित करने जब भी कुछ कहा गया
शब्द प्रेम को ढाँप ना सके
कहन की चादर के कोनों से
प्रेम के पैर हमेशा बाहर निकले रहे
शब्दों के विन्यास और ध्वनि में ढूँढी गयी
होठों की एक अदृश्य काँप-भर है प्रेम
शब्द हमारी व्यर्थतम चेष्टा है
जब महसूसने को ही हो सब कुछ
भाषा एक अतिरेक है
जब संकेत गढ़े और समझे जा सकें
अभिव्यक्ति की अनंत में बनती परछाईं में देखना
क़रीब दिखेगा प्रेम
जब दिख जाए
तो बस वहीं ठहर जाना
कुछ कहना मत
बस देखते रहना
सुंदर कल्पनाओं के पहाड़
कहने की हलचल से पिघल जाते हैं
नदियों में बहता रहा आता है
शब्दों का मारा प्रेम।