सुबह-सुबह वो नहलाये ताज़ातरीन बाल फैलाए
खड़ताल बजाती हुई निकलती है
गाँव की पहली आँख खुलने से भी पहले
पतली कच्ची कीचड़ लदी गलियों के
उबकाहट भरे जंजाल में
भोंडे और कामुक भक्ति गीत गाते हुए
वो बिछाती है घटनाओं के नए चादर
पिछले दिन के खून, विष्ठा और मीठी नमी पर
जिनका कचूमर बना देंगे हम अगले दिन अपने कदमों से
बिना रीसाइकिल किये
बिना महसूस किये
हम कुलबुलाते दैनिक चर्या से निकलेंगे
सड़कों पर सड़कें बिछती जाएँगी
किसी दिन वो छुपा देंगी हमारे घरों की अनगढ़ बदसूरती
किसी दिन हम बस असहाय से झांकेंगे अपने अपने गड्ढों से
सुनते हुए उसकी घंटों पहले बजाई खड़ताल की गूँज।