‘Sursa Ke Mukh se: Bor’, a poem by Ashish Bihani
आँखों में रोष भरे
वो कोशिश करता है
एक चुटकुला सुनाने की
और सभा की चुप्पी उसे नागवार गुज़रती है
रोष का उमड़ आता ज्वार
टकराता है
दीवारों से
जैसे तेज रफ़्तार से चलती कोई ट्रेन टकराती है
कीचड़ के विशाल ढेर से
एक चिपचिपा गीलापन ढक लेता है उसके कमरे की दीवारों को
उसकी हड्डियों में जंग लगता है
उसके घावों से पौधे उग आते हैं
कड़कड़ाकर कोई उठता है अपनी जगह से
उठने के श्रम से थककर बैठ जाता है अगले ही क्षण
बोरियत के ढेर पर लोग फेंकते हैं अधीरता से
पानी और फटे हुए रुमाल
डुबा नहीं पाते फिर भी…
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