Tag: A poem for environment

अचेतन

अक्सर बैठे घिसती रहती हूँ चेतना लोगों की कि कहीं किसी कोने में छिपा सम्वेदना का जिन्न मुझसे आकर पूछे- "क्या हुक्म मेरे आक़ा?" और मैं झट से उसे पांडोरा के...
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