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अहमद नियाज़ रज़्ज़ाक़ी की नज़्में
अब
अब कहाँ है ज़बान की क़ीमत
हर नज़र पुर-फ़रेब लगती है
हर ज़ेहन शातिराना चाल चले
धड़कनें झूठ बोलने पे तुलीं
हाथ उठते हैं बेगुनाहों पर
पाँव अब रौंदते...
कमतर मैं
'Kamtar Main', a poem by Rakhi Singh
अपने से छोटों को मैं प्रायः यह सलाह देती हूँ,
जो चाहो, सब करो।
न कर पाने की
कोई हताशा, कोई निराशा...
क्लॉड ईथरली
"जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज़ जो लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।""हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।""हाँ, मैं उस भद्रवर्ग का अंग हूँ कि जिसे अपनी भद्रता के निर्वाह के लिए अब आर्थिक कष्ट का सामना करना पड़ता है, और यह भाव मन में जमा रहता है कि नाश सन्निकट है।""हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम (उन) उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जायें यानी दुरुस्त हो जायें या उसी पागलखाने में पड़े रहें!""आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्मा आ गई है, चेतन में स्व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्य का आदर्श - भले ही वह बुरा समाज क्यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्य है।..."
विस्मृत यादें
हम उस दौर में है
जब सिकुड़ने लगती है याददाश्त
और
असंख्य शाप पीछा करते हैं
कितना आसाँ होता है
पलट कर विस्मृति का एलबम खोल
बिना जोखिम के
कहीं पर...
नादान प्रेमिका से
तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!
मैं तो मन को समझा लूँगा
यह सोच कि पूजा था पत्थर
पर तुम अपने रूठे मन को
बोलो तो, क्या...