‘Tanashahi’, a poem by Niki Pushkar

प्रकटतः जो सहज आकर्षण
दिख रहा था
वस्तुतः कलात्मक चतुराई थी।
हृदय के रिक्त स्थान को
समय-असमय
अपनी उपस्थिति से भरा गया
और फिर बड़ी चालाकी से
स्वतंत्रता चुरा ली गई
और उतनी ही कुशलता से
अपनी स्वतंत्रता,
सुरक्षित रखी गयी
उसे जब चाहे,
मुझे टोकने की
आज़ादी हासिल हो गई थी
मेरे एकांत में,
हर एक क्षण की
दख़लअंदाज़ी की छूट मिल चुकी थी
और मेरा अधिकार अब भी,
उसकी सहूलियत का मुँह तकता था
मेरी एक दस्तक पर कपाट खुल जाएँगे
ऐसा भरोसा मिलता न था
बेरोकटोक आवाजाही की
स्वच्छंदता दिखती न थी
यह एक तानाशाह की सत्ता थी
जहाँ शाह का फ़रमान चलता था
व्यक्ति के अधिकार बंधित थे
और प्रेम कुण्ठित था…

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