‘Tum Abhi Bheetar Ho’, a poem by Rahul Boyal
तुम अभी भीतर हो
स्वप्न की तरह नयनों में तो
कई वर्षों से हो
जैसे मन में गुने जाते हैं गीत
वैसे तुम्हारी माँ के भीतर भी
बुने जा रहे थे तुम
पर अब दिखने लगे हो सबको
कि तुम भीतर हो।
अंदर कितना अँधेरा है- पता नहीं
कभी मैं भी भीतर था
तुम्हारी माँ भी थी
पर इस अँधेरे की तह को
नहीं नाप पाया कोई
जबकि सब ही रहे हैं इस अँधेरे में
कभी न कभी।
जिस दिन तुम स्वप्न की जगह
बीज की तरह प्रस्फुटित हुए
पहला अहसास तुम्हारी माँ को हुआ
कि तुम भीतर हो
कितने शान्त और सौम्य!
मगर मैं व्याकुल हूँ उसी पल से
कि कब आओगे उजाले में
मैं धैर्य से भरा हुआ
एक साधारण-सा व्यक्ति
नये सम्बोधन को सुनने
हुआ जाता हूँ कितना अधीर
कि मानने लगा हूँ स्वयं को
और भी विशिष्ट
कल्पना में कितने चित्र बना लिये हैं
मैंने तुम्हारे
तुम्हारी आँखों की कल्पना में
कितनी बार देख चुका हूँ
तुम्हारी माँ की भवों तले
तुम्हारे मन की कोमलता में
अपनी माँ का स्पर्श
याद करने लगा हूँ
बहुत अँधेरा है इस दुनिया में
जबकि तुम्हें लगेगा
कि तुम उजाले में आ गए हो
जब तुम यहाँ की हवा में
लेने लगोगे श्वास
तब पता चलता जाएगा तुम्हें
सही-सही फ़र्क़
उजाले और अँधेरे का
कुछ हम दोनों भी
सिखाएँगे तुम्हें
जीवन में जीवट के कई प्रसंग
तुम्हारी नानी के पास बहुत गीत हैं
और तुम्हारी दादी तो भरी-पूरी है
न जाने कितनी कहानियों से
धरती पर तुम्हारी आवक को
और सुन्दर बनाने में तल्लीन रहेंगे
तुम्हारे दादा-नाना
तुम्हारी आवक से पहले
तैयार हो रही है धरती भी
वासन्ती ढंग से
तुम्हारे आगमन की
किसे नहीं है प्रतीक्षा।
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