तुम कनक किरन के अन्तराल में
लुक-छिपकर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौन्दर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता-सी यह हँसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगन्धा की कली खिली
अब सान्ध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 - 15 नवम्बर 1937), हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया।