‘Us Aurat Ki Bagal Mein Letkar’, a poem by Dhoomil
मैंने पहली बार महसूस किया है
कि नंगापन
अन्धा होने के ख़िलाफ़
एक सख़्त कार्यवाही है
उस औरत की बग़ल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी ख़ौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक पर ज़िन्दा हैं
वक़्त को रगड़कर
मिटा देने के लिए
सिर्फ़ उछलते शरीर ही काफ़ी नहीं हैं
जबकि हमारा चेहरा
रसोईघर की फूटी पतीलियों के ठीक
सामने है और रात
उस वक़्त रास्ता नहीं होती
जब हमारे भीतर तरबूज़ कट रहे हैं
मगर हमारे सिर तकियों पर
पत्थर हो गये हैं
उस औरत की बग़ल में लेटकर
मैंने महसूस किया कि घर
छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से
बना है
जिसके अन्दर जूता पहनकर टहलना मना है
यह घास है याने कि हरा डर
जिसने मुझे इस तरह
सोचने पर मजबूर कर दिया है
इस वक़्त यह सोचना कितना सुखद है
कि मेरे पड़ौसियों के सारे दाँत
टूट गये हैं
उनकी जाँघों की हरकत
पाला लगी मटर की तरह
मुर्झा गयी है उनकी आँखों की सेहत
दीवार खा गयी है
उस औरत की बग़ल में लेटकर
(जब अचानक
बुझे हुए मकानों के सामने
दमकलों के घण्टे चुप हो गये हैं)
मुझे लगा है कि हाँफते हुए
दलदल की बग़ल में जंगल होना
आदमी की आदत नहीं अदना लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग़ है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है।