वे बैठे हैं
पलथी टिकाए
आँख गड़ाए
अपनी रोटी बाँधकर ले आए हैं,
रखते हैं तुम्हारे सामने
अपने घरों के चूल्हे,
आश्वासन नहीं माँगते तुमसे
माँगते हैं रोटी के बदले रोटी
अपने खेत खोदकर ले आए हैं,
रखते हैं तुम्हारे सामने
अपने खेतों की मिट्टी,
जिरह नहीं माँगते तुमसे
माँगते हैं मिट्टी के बदले मिट्टी
वे बैठे हैं कि
खड़ा नहीं हुआ जाता
झुकी रीढ़ लिए
नहीं लाए हल कुदाल फावड़े
चप्पलें तक नहीं लाए
दूर से आवाज़ नहीं आती थी तुम्हें
सो चले आए हैं
ख़ाली हाथ, ख़ाली पैर
मुठ्ठियाँ लाएँ हैं लेकिन
बुलन्द मुठ्ठियाँ
अपनी छतों से देखना
आसमान की ओर लहराती मुठ्ठियों को
जिनमें सदियाँ साल महीने बँधे हुए हैं
वे लड़ नहीं रहे
यह कोई युद्ध नहीं है
रोटी माँगना युद्ध नहीं होता
यदि होता है तो
इससे शर्मनाक स्थिति क्या हो सकती है कि
किसान हमारी रोटियों के लिए लड़ रहे हैं और
हम अपनी रोटियाँ तोड़ रहे हैं
क्यों?
भूख बर्दाश्त नहीं होती?
भूख बर्दाश्त करने लायक़ चीज़ है क्या!
यह न कौतुक है न आश्चर्य
जिन्हें बैठाकर उनके पाँव धोने चाहिए थे
उन पर पानी की तोपें लगा दी गईं
जिन्हें सबसे आराम से सोना चाहिए था
वे अपनी नींदें छोड़कर लाठियाँ खा रहे हैं
जिन्हें सबसे पहले सुना जाना चाहिए था
उन्हें सबसे आख़िरी क़तार में खड़ा किया गया है
वे बैठे हैं
हारे नहीं हैं
जिन्हें बाढ़ों ने नहीं हराया
सुखाड़ों ने नहीं हराया
सरकारें उन्हें हराने के भ्रम में ना रहें
उन्हें डराने के भ्रम में ना रहें
वे बैठे रहेंगे
अपनी ज़मीनें सीने से लगाकर
तुम्हें कुर्सियाँ छोड़नी होंगी
कुर्सी सीने से लगाने की चीज़ नहीं होती।
आदर्श भूषण की कविता 'आदमियत से दूर'