इस पृथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से

वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता

उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता

वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अन्देशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर
टिकी हुई यह पृथ्वी।

भगवत रावत की कविता 'चिड़ियों को पता नहीं'

Book by Bhagwat Rawat:

भगवत रावत
(जन्म- 13 सितम्बर 1939) हिन्दी कवि व आलोचक।