अभी मरा नहीं, ज़िन्दा है आदमी शायद
यहीं कहीं उसे ढूँढो, यहीं कहीं होगा
बदन की अंधी गुफा में छुपा हुआ होगा
बढ़ा के हाथ
हर इक रौशनी को गुल कर दो
हवाएँ तेज़ हैं, झण्डे लपेटकर रख दो
जो हो सके तो उन आँखों पे पट्टियाँ कस दो
न कोई पाँव की आहट
न साँसों की आवाज़
डरा हुआ है वो
कुछ और भी न डर जाए
बदन की अंधी गुफा से न कूच कर जाए
यहीं कहीं उसे ढूँढो
वो आज सदियों बाद
उदास उदास है
ख़ामोश है
अकेला है
न जाने कब कोई पसली फड़क उठे उसकी
यहीं कहीं उसे ढूँढो यहीं कहीं होगा
बरहना हो तो उसे फिर लिबास पहना दो
अंधेरी आँखों में सूरज की आग दहका दो
बहुत बड़ी है ये बस्ती, कहीं भी दफ़ना दो
अभी मरा नहीं
ज़िन्दा है आदमी शायद!
निदा फ़ाज़ली की नज़्म 'ख़ुदा का घर नहीं कोई'