आज भी होंगे करोड़ों पर अन्याय
अत्याचार होंगे लाखों पर
इस शाम भी असंख्य सोएँगे भूखे या आधे पेट
हज़ारों-हज़ार रहेंगे बेआसरा-बेसहारा
औरतें गुज़रेंगी हर सम्भव-असम्भव अपमान से
बच्चे होंगे अनाथ या बेच दिए जाएँगे
बेशुमार हाथ फैले होंगे दूसरों के आगे
आज भी वही होगा जो पाँच हज़ार वर्षों से होता आया है
लोग जारी रखेंगे जन्म या कर्म के कारण ग़ुलामी
स्वाभावकि कारणों से मरी लाशें मिलेंगी
जिनकी शिनाख़्त करने कोई नहीं आएगा
आज भी बितायी होगी लोगों ने एक शानदार ज़िन्दगी
हुआ होगा अरबों का धंधा, करोड़ों का नफ़ा
अपने के सिवा किसी की परवाह नहीं की गई होगी
जो सेवाएँ, जिंस, जायदादें पहले ही बहुत ख़रीदी जा चुकी हैं
उन्हें और और ख़रीदा गया होगा
आज भी लोगों ने पूछा होगा असली ग़रीबी अब है कहाँ
कहा गया होगा कि पैदाइशी कामचोर ग़लीज़ों को कोई ऊपर ला नहीं सकता
जात-पाँत, ऊँच-नीच तो कभी के ख़त्म हो चुके
आज नहीं है तो दस बरस में हो ही जाएगा
चूड़ों, चमारों, जंगलियों का राज
फिर भी हरामख़ोरों का रोना बंद नहीं होगा
ऐसे शिश्नोदरवादियों के विरुद्ध आज भी बातें हुई होंगी
कलाओं और संस्कृति की
सराहा गया होगा धर्म, दर्शन, परम्परा को
मुग्ध हुआ गया होगा लोक तथा जनजाति जीवन पर
उनके हुनरों और शिल्प की बारीकियों में जाया गया होगा
विश्व के अधुनातन सृजन चिंतन के साथ
राष्ट्रीय वैश्विकता तथा औदार्य पर
सतर्क आत्माभिनन्दन किया गया होगा
यथार्थ को स्वीकार करते हुए भी
शाश्वत मूल्यों पर चिन्ता प्रकट की गई होगी
क्योंकि यथार्थ को कितना रोएँ, वह तो होता आया है
कहा गया होगा कि आज भी ऐसे लोग हैं
जो देश और अस्तित्व के सनातन पहलू समझना नहीं चाहते
आज भी सिर झुके रहे थे दुःख, पछतावे, कृतघ्नताबोध के साथ
कि जो किया वह कितना कम था
हौसला रखा लेकिन काफ़ी न था
आती जा रही हैं नयी निराशाएँ और पराजयें
आज भी अकारथ जाए हास्यापद होना पड़े या अकेला
जितना कर सकते थे किया उतने जितना ही करो
अपनी तरफ़ से एक और क्यों जोड़ते हो उनमें जो
कल भी होंगे करोड़ों पर अन्याय।
विष्णु खरे की कविता 'डरो'