एक-इक ईंट गिरी पड़ी है
सब दीवारें काँप रही हैं
अन-थक कोशिशें मेमारों की
सर को थामे हाँफ रही हैं
मोटे-मोटे शहतीरों का
रेशा-रेशा छूट गया है
भारी-भारी जामिद पत्थर
एक-इक करके टूट गया है
लोहे की ज़ंजीरें गलकर
अब हिम्मत ही छोड़ चुकी हैं
हल्क़ा-हल्क़ा छूट गया है
बंदिश-बंदिश तोड़ चुकी हैं
चूने की इक पतली-सी तह
गिरते-गिरते बैठ गई है
नब्ज़ें छूट गईं मिट्टी की
मिट्टी से सर जोड़ रही हैं
सब कुछ ढेर है अब मिट्टी का
तस्वीरें वो दिलकश नक़्शे
पहचानो तो रो दोगी तुम
घर में हूँ, बाहर हूँ घर से
अब आओ तो रक्खा क्या है
चश्मे सारे सूख गए हैं
यूँ चाहो तो आ सकती हो
मैंने आँसू पोंछ लिए हैं!
अख़्तर-उल-ईमान की नज़्म 'मस्जिद'