‘Aise Hi Likhi Gayi Hongi Kai Kavitaaein’, a poem by Adarsh Bhushan
ऐसे ही लिखी गयी होंगी
कई कविताएँ,
जब कोई कवि
अपने जीवन का सबसे मुश्किल दौर काट रहा हो,
दर बदर भटक रहा हो नौकरियों के फेरे में,
घिस रहा हो जूतों के तलवे,
अपनी महत्वाकांक्षाओं
पर रोज़ सवाल बुन रहा हो,
खूँटे पे टँगी डिग्रियाँ देखकर
कोस रहा हो ख़ुद को
या हो सकता है
हार मानकर,
ज़्यादा ना सोचने का
एक नया बहाना सोच लिया हो
या खा रहा हो
किसी पराए सफ़र में धक्के,
सुन रहा हो ज़माने से ताने,
या रोज़ अपने अंदर कुछ
कम होता हुआ देखकर
किसी सड़क पर यूँही
लक्ष्यहीन चलता चला जा रहा होगा,
या यौवन के सारे चरण पार कर
जब एक सीमांत पे पहुँचे
तब किसी दफ़्तर के चक्कर काट रहा होगा
फ़ाइलें लेकर
अपनी पेन्शन पाने को,
या बीमार पड़ा हो अस्पताल के किसी बिस्तर पे,
अकिंचन प्रतिच्छाया से प्रश्न पूछ रहा हो
अपनी जीवन की उपलब्धियों पर,
या अपनी मृत्युशैय्या पर पड़े
अपने सारे सपनों के
मृत अवशेष इकट्ठे कर रहा होगा,
तब आयी होगी उसे किसी की याद,
और रची होगी एक कविता
जो शायद वो अपने साथ ले जाना चाहता होगा।
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