तब भी बहुत सन्नाटा था,
आज भी बहुत सन्नाटा है।

जाड़े की उन रातों में,
तेरे दामन में लिपटी हुई मैं,
और हम दोनों की,
एक-दूसरे में लिपटी हुई ज़बान।
सुनाई कुछ देता था,
तो सिर्फ-
वो साँसों की गर्माहट के बीच
सिसकियाँ लेता सन्नाटा,
और…
बाकी बहुत सन्नाटा था।

दबे पाँव जाड़े ने अब फिर दस्तक दी है।
कुछ हल्की सी गुलाबी ठंड,
कुछ मौसम का सुर्ख़ होना,
कुछ जल्दी ही शाम का ढलना,
कुछ दूर की आवाज़ों का पास सुनाई देना।
कुछ-कुछ बदल सा रहा है,
या बहुत कुछ?…
कुछ मेरे बदन से जल्द ही मौसम का गुज़रना,
कुछ आँखों का जल्द ही नम होना,
कुछ सांसों का जल्द चलना,
कुछ ख़्वाबों का बस यूँ ही बिखरना,
कुछ हवाओं का रुख़ बदलना,
जैसे बहुत कुछ बदल जाना।

जाड़े का मौसम अब भी है,
ज़बान भी है,
मैं हूँ,
सिसकियाँ भी हैं,
और सन्नाटा भी है।
सन्नाटा तब भी बहुत था,
सन्नाटा आज भी बहुत है।

सब कुछ तो वही है,
एक सिर्फ…