फ़ासले जो कभी तय ना कर पाए,
हमारे बीच का मौसम
काग़ज़ पर सवार होकर,
शायद ये लफ़्ज़,
तुम तक पहुँचने में
कामयाब हो जाए!
हमारे भीतर ठहरा,
गर्म सांसो का उफ़ान लिए,
किसी कोहरे की चादर ओढ़े,
शायद ये सूनापन,
इन सर्द हवाओं में
बस यूँ घुल जाए!
जज़्बात कभी नहीं बदले,
बदले तुम भी नहीं,
बदल गए है माइने,
शायद ये परवाह बनके,
इस बार ज़ेहन बनके
तुम तक पहुँच जाए!
वक्त भी कहाँ ठहरा है?
अब पलों में दोड़ने लगा है,
दूरियां भी बढ़ी है,
शायद वो नज़दीकी हमें
इस बार क़ब्र के रास्ते,
ही सही, पर मिल जाए!