बन्द कमरे में
मेरी सब चीज़ें अपना परिचय खोने लगती हैं
दीवारों के रंग धूमिल
नीले पर्दे फीके
छत पर घूमता पंखा
गतिहीन।
तब मैं निकल पड़ती हूँ—बाहर,
फुटपाथ पर मूँगफली बेचनेवाला
परिचय की मुस्कान देता है
और सामने पानवाले की दुकान पर
घरवाली का हाल पूछना
कहीं अधिक अपना लगता है।
चौराहों पर
भीड़ के साथ रास्ता पार करना
मुझे अकेला नहीं करता।
बहुत से लोग हैं
इस महानगर में, जो मेरी ही तरह
अपने को बाँटते हैं
रेस्तराँ और दुकानों में
सिनेमाघर की लम्बी क़तारों में
या कभी
पार्कों में पड़ी खाली बेंचों पर
ऊबकर
या फिर बन्दरों का नाच देख
लौट जाते हैं—सब मेरी ही तरह
बन्द कमरों के
अपने अकेले निर्वासन में…
प्रभा खेतान की कविता 'मेरे और तुम्हारे बीच'