‘Bhishma Pratigya’, a poem by Mohit Mishra
मानव के हठ का कुटिल खेल,
पूरे नव दिन तक झेल-झेल,
ले किरण-नयन में रक्तिम-जल,
रवि लौट चले निज अस्ताचल।
तब महा-प्रलय के खोल नेत्र,
भर कर लाशों से कुरुक्षेत्र,
थम गया नियम से बद्ध समर,
लौटे निज-निज दल वीर प्रवर।
पर आज घटा अघटित कराल,
सुन दुर्योधन के वचन-ब्याल,
प्रण ठान पितामह परम क्रुद्ध,
करने को तत्पर विषम युद्ध,
भर कर बाणों में महा-मरण,
गह महाकाल के क्रुद्ध-चरण,
विद्युत् गति लेकर के रण में,
वे कौंध रहे थे क्षण क्षण में।
वह महायुद्ध था धर्मयुद्ध,
हो जिसमें कौरव के विरुद्ध,
रखने को धर्म अशंक-अटल,
थे जूझ रहे पाण्डव निश्चल।
पर समरांगण के सूत्रधार,
थे श्रीहरि के पूर्णावतार,
वे मिले पाण्डवों को ऐसे,
होता है पुण्य फलित जैसे।
जिनके आक्रोश में आने से,
जिनकी भृकुटि तन जाने से,
त्रैलोक्य प्रकम्पित होता है,
सारा जग शंकित होता है,
उसने विचित्र विधान किया,
प्रण एक अनूठा ठान लिया,
कि आयुध को बिन लिए हस्त,
मैं देखूँगा यह रण समस्त ।
कुरुदल के पालनहार बने,
गंगा कुमार, बन तुंग, तने,
जिनके प्रण की वो कथा अमर,
है ज्ञात नहीं किसको भू पर।
वह आज युद्ध के नवम दिवस,
सुन दुर्योधन के वचन, विवश
द्विदल में हलचल भर डाले,
फिर भीष्म, प्रतिज्ञा कर डाले।
साक्षी हों मेरे दिग्दिगंत,
साक्षी हों मेरे उमाकंत,
साक्षी हो यह अम्बर विशाल,
साक्षी हो मेरा, स्वयं काल,
या कृष्ण सुदर्शन धारेंगे,
या पाण्डव स्वर्ग सिधारेंगे।
मृत्यु के संग में खेल खेल,
नव दिवस सतत संग्राम झेल,
जो लौट रहे थे वीर प्रवर,
थी यहीं कथा उनके मुखपर –
कि क्रोधित भीष्म लड़े कैसे,
पाण्डव पर टूट पड़े कैसे,
वे विकट प्रभंजन सा लड़कर,
अरिदल के व्यूहों पर चढ़कर,
अगणित धर मस्तक काट दिए,
मृतकों से भूधर पाट दिए,
पाण्डव सेना चीत्कार उठी,
रक्षण कौन्तेय पुकार उठी।
श्रीकृष्ण त्वरित रथ साथ लिए,
अर्जुन गाण्डीव को हाथ लिए,
बढ़ चले पितामह के विरुद्ध,
करने को उनसे द्विरथ युद्ध।
था शक्ति शौर्य संगम अपार,
था विकट युद्ध भीषण प्रहार,
था दिव्यास्त्रों का वेग प्रखर,
था नर सिंहों का दिव्य समर।
थे चले विशिख दुर्गम दुरूह,
थे खण्डित होते विषम व्यूह,
दोनों करते ध्वंसक प्रहार,
थी मगर अनिर्णीत जीत-हार।
था हुआ गहन पर जैसे रण,
थे गुज़रे जैसे क्षण-प्रतिक्षण,
हो क्रुद्ध पितामह हुए चण्ड,
करने को स्यंदन खण्ड-खण्ड,
थे छोड़ दिए सायक कराल,
पर चतुर सारथी नन्द लाल,
अश्वों को तनिक घुमा करके,
अर्जुन को पुनः बचा करके,
सम्भले भी नहीं, कि क्षिप्र वार,
कर चुके थे श्री गंगा कुमार,
सहलाता हुआ कृष्ण का कच,
वह तोड़ चुका था पार्थ-कवच।
वक्षस्थल पर खाकर प्रहार,
ज्यों गिरे व्यथित कुंती कुमार,
स्तम्भित रह गया कुरुक्षेत्र,
विस्मय से सबके खुले नेत्र,
हतप्रभ से रह गए धर्मधीर,
ज्यों लगा उन्हें हो स्वयं तीर,
निश्चल अर्जुन को देख त्रस्त,
थे शोक ग्रस्त पाण्डव समस्त।
वह धर्म-ध्वजा का मेरु दण्ड,
वह वीर धनुर्धर था प्रचण्ड,
बाणों का स्वाद चखा था जो,
माधव का वीर सखा था वो।
स्यंदन में अर्जुन को विलोक,
हो क्रुद्ध, युद्ध के ताल ठोक,
ख़ुद करने को रण तूल चले,
श्री कृष्ण प्रतिज्ञा भूल चले।
भीषण रथचक्र उठा करके,
आयुध सा उसे बना करके,
गंगासुत पर करने प्रहार,
थे दौड़ पड़े प्रभु गुणागार।
लख महानाश या पूर्ण अंत,
था काँप उठा अम्बर-अनंत,
चहुँ ओर विकट भूडोल उठा,
धरती का धीरज डोल उठा,
तब तक कौन्तेय सचेत हुए,
पर दृश्य देख हतचेत हुए,
यह हाय हमारा जन्म व्यर्थ,
कि जिसके कारण प्रभु-समर्थ,
हो विवश धर्मपथ छोड़ दिए,
अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दिए,
था दौड़ा अर्जुन कर पुकार,
हे सखा! कृष्ण! धर्मावतार!
क्यों करने को अनुचित अनर्थ,
तुम उद्द्यत होते भला व्यर्थ,
क्यों स्वयं को यूँ बदनाम किया,
कह त्वरित वाम पद थाम लिया।
रवि दूर क्षितिज पर, ले विराम,
यह दृश्य लखें नयनाभिराम,
दोनों दल तज कर कुरुक्षेत्र,
थे शीतल करते युगल नेत्र।
जब हरि को प्रण से मोड़ दिया,
कोदण्ड भीष्म ने छोड़ दिया,
कर जोड़ युगल, कर पदवन्दन,
बोले मृदु स्वर… गंगा नंदन,
हरने को मेरे अधम प्राण,
देने को मुझको परम त्राण,
जो लक्ष्य कर लिया है स्यंदन,
तो कृष्ण आपका अभिनन्दन।
तो कृष्ण आपका अभिनन्दन।
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